गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

प्रोफेसर हितेश व्‍यास, कोटा (राज0)


गिरते गिरते ही सँभल जाइयेगा।
फँसत फँसते ही निकल जाइयेगा।
नंगे तारों का इंतज़ाम हो चुका है ,
छूते छूते ही उछल जाइयेगा।
राख और पानी के बावज़ूद आप ,
बुझते बुझते ही जल जाइयेगा।
एक अदद सूरत के वास्‍ते कृपया,
चाँद और सितारो ढल जाइयेगा।
देवता हैं तो बने रहियेगा पत्‍थर,
आदमी हैं तो पिघल जाइयेगा।

दृष्टिकोण ग़ज़ल विशेषांक से साभार 

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