बुधवार, 3 अप्रैल 2013

संतोष सुपेकर, उज्‍जैन (म0प्र0)

क्‍या पड़ी हमें, जो बंद करें
एक बहता हुआ नल
हम आज़ाद जो ठहरे।
क्‍या पड़ी हमें, जो बंद करें
दिन में जलता बल्‍ब
हम आज़ाद जो ठहरे।
क्‍या पड़ी हमें, जो मदद करें
एक बेबस, बेसहारा की
हम आज़ाद जो ठहरे।
यों बचाएँ हम पैट्रोल-डीज़ल
क्‍यों पालन करें सड़क नियमों का
हम आज़ाद जो ठहरे।
ये आज़ादी है या उच्‍छृंखलता?
हमें क्‍या पड़ी है, जो हम सोचें
हम आज़ाद जो ठहरे।।

उनकी पुस्‍तक *चेहरों के आरपार* से साभार।

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