सोमवार, 22 अप्रैल 2013

मथुरा प्रसाद जोशी, हौशंगाबाद (म0प्र0)

माँ की शिक्षा ने जीवन में, ऐसा दीप जलाया।
मिटा तिमिर अज्ञान हृदय का अंजन नयन लगाया।

उसकी बातें हैं कुछ ऐसी जैसे वेद ॠचाएँ।
अंतरपट अंतस में रक्‍खी मुझसे नहीं छिपाएँ।

झिड़की की खिड़की से खुलती मानों दसों दिशाएँ।
सुनी बीरता और साहस की अनुपम शौर्य कथाएँ।

माता के होठों के चुम्‍बन से अमृत है फीका।
इस दुलार सा नहीं मिला कुछ जगत् में नीका।

मद्राचल सी किन्‍तु कर कोमल थामे मेरा।
सागर की गइराई थोड़ी थाह न पाया तेरा।

मलयाचल साँसों में जिसकी वन-उपवन में डेरा।
बाहों के झूले में होता मेरा नित्‍य सवेरा।

ऊषा की किरणों सा कोमल माँ का हर स्‍पंदन।
उसने काटे हैं दुनियाँ के सभी जटिलतर बंधन।

माँ के चरणों में दुनिया का हर वैभव बसता है।
केवल सेवा से मिल जाता है तो भी तो सस्‍ता है।

'शब्‍द प्रवाह' वार्षिक काव्‍य विशेषांक अंक 14 से साभार।

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

माँ की ममता- प्यार्-दुलार्- त्याग-सहीश्णुता अवर्णनीय है और तुलना असम्भव. प्रेरक रचना स्त्य्त्यपूर्ण है.
डा. रघुनाथ मिश्र्