शनिवार, 13 अप्रैल 2013

रघुराज सिंह 'निश्‍चल', मुरादाबाद (उ0प्र0)

हवाओं का रुख अब बदलने लगा है
मनुज को मनुज आज छलने लगा है।
अभी तक जो भरते थे दम दोस्‍ती का,
उन्‍हें बात करना भी खलने लगा है।
मिली हमको जिस दिन से थोड़ी शोहरत,
ग़ज़ब है कि हर दोस्‍त जलने लगा है।
नई सभ्‍यता की चली जब से आँधी,
हया का जनाजा निकलने लगा है।
यह दुनिया दिखावे की ही रह गई है,
दिखावे को हर मन मचलने लगा है।
इन आतंकियों पर नियंत्रण नहीं है,
धमाकों से जग अब दहलने लगा है।
भरोसे के क़ाबिल नहीं कोई 'निश्‍चल',
ज़बाँ से अब इंसान फि‍सलने लगा है।

श्री मुकेश 'नादान' सम्‍पादित *साहित्‍यकार-4* से साभार 

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

सुन्दर रचना. बधाई.
डा. रघुनाथ मिश्र
अधुवक्तता/ साहित्यकार.