शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

सनातन कुमार वाजपेयी 'सनातन', जबलपुर (म0प्र0)

खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।
हर गली पर रो रही हैं वेदनायें।।

नृत्‍य-रत आतंक निष्‍ठुर घात करता।
स्‍वार्थ भ्रष्‍टाचार सबको मात करता।
रुग्‍ण हैं शुभ साधनों की कल्‍पनायें।।

उच्‍चता के मान में प्रासाद खोयें।
दैन्‍य ले अपमान का अवसाद ढोंयें।
शांति सुख की शेष कोरी अल्‍पनायें।।

रवि-प्रभा व्‍याकुल न जी भर खिल रही है।
ज्‍योत्‍सना केवल बड़ों को मिल रही है।
मानते हैं अब न कोई वर्जनायें।।

आज सब सद्भाव बौने हो गये हैं।
जो कभी थे श्रेष्‍ठ छौने हो गये हैं।
अब कहीं पर हो ना पाती सर्जनायें।।

शुष्‍क नद, नदियाँ, सिसकतें चाँद तारे।
मिल न पाते शांति के शीतल किनारे।
सो गई जाने कहाँ सब अल्‍पनायें।।

खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।।

भारतेंदु समिति, कोटा द्वारा प्रकाशित
त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'चिदम्‍बरा' अप्रेल-सितम्‍बर 2012 (संयुक्‍तांक)  से साभार।  



1 टिप्पणी:

Dr. Raghunath Misra ने कहा…

सो गई जाने कहाँ सब अल्‍पनायें।।
aspiring poem. congrats.