शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

रघुराज सिंह हाड़ा

तुम क्‍या सोच रहे हो, मैं हुंकारें भर लूँगा
जो कह दो, लिख दो, उस पर अँगूठा धर दूँगा
लाख गालियाँ दे जग, सच के भक्‍त विभीषण को
रावण‍ के बद से, क्‍यों कर समझौता कर लूँगा


गाली क्‍या निष्‍कासन क्‍या, विस्‍मरणीय उपेक्षायें
सहना सीखा है, सच के पक्ष की आपदायें
नहीं मिलूँगा राजमुकुट से, मेरुदण्‍ड खो कर
वल्‍कलधारी बनवासी की, इष्‍ट मित्रतायें

पुस्‍तक 'जीवन की गूँज' के लोकार्पण के
अवसर पर रघुराज सिंह हाड़ा
अध्‍यक्षीय भाषण देते हुए
 तुम जो सोच रहे हो, वो सौदे की बातें हैं
आँख खुली तब से हम, बाग़ी जाने जाते हैं
जिन्‍हें पेट को, सर से ऊपर, रखना आता है
बिकते है जो, जूतों तक में, हलुआ खाते है

भ्रम छोड़ो बाजार बड़ा है, सब कुछ बिकता है
लेकिन जो दुर्लभ है, क्‍या मण्‍डी में दिखता है
भीड़ बहुत होने से ही, बस्तियाँ नहीं बसतीं
मुट्ठीभर दीवानों के दम पर जग टिकता है

माना तुमने सदा यही, तेवर दिखलाये हैं
लेकिन याद करो रवि ने क्‍या तम विदुराये हैं
सबका रक्‍त लाल होता है, शत प्रतिशत सच है
लेकिन कुछ ज्‍वाला, तो कुछ, पानी कहलाये है

कान तुम्‍हारे आदी हाँ हाँ कहने वालों के
सबको अर्थ ज्ञात है पर इन टेढ़ी चालों के
भूलो मत भस्‍मासुर खुद पा कर वरदानों को
भस्‍म हुआ मय खड्ग, कवच, रक्षक ढालों के

बहुत पुराना कुनवा है, हम मस्‍त फकीरों का
जमघट तुमको घेरे रहता सदा वज़ीरों का
एक नाव में कैसे बैठें, तुम तो डरते हो
धारा के विपरीत जूझना परिचय वीरों

1 टिप्पणी:

Manju Hada ने कहा…

धारा के विपरीत जूझना परिचय वीरों का ,यही तो जीवन का आदर्श ‌‌‌भी रहा उनका ।सब के लिये स्नेह था मन में पर उसूलों के विरुद्ध कुछ भी उन्हें स्वीकार नहीं था ।जैसे जीना था मन माफिक वैसे ही जिये अपने आदर्शों के साथ।जो उन्हें नजदीक से जानते थे वो सब उनका परिवार ही था ।