शनिवार, 8 सितंबर 2012

पुरुषोत्‍तम 'यक़ीन'




जंजीर खुल के पांवों की गर्दन में डल गई
सचमुच ही कल से आज की सूरत बदल गई।
सौ की नहीं दोस्‍तों दस की सही मगर
अखिर कहीं तो देश में हालत सँभल गई।
और क्‍या सुबूत लीजिए सच्‍चे स्‍वराज का
गाँधी की शक्‍ल देश के सिक्‍कों पे ढल गई।
आधार तो क्‍या वो देश को पूरा ही बेच दें
मुख्‍तार वो हैं फ़ि‍र तेरी क्‍यूँ जान जल गई।
होते हैं क़त्‍ल अब तो सरे-आम देश में
क्‍या कह दिया अरे रे जुबाँ फि‍सल गई।
आज़ादियाँ नहीं हैं तो फि‍र क्‍या है ये यक़ीन
हर सम्‍त लूटमार की आँधी तो चल गई।।




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