शनिवार, 15 सितंबर 2012

डा0 श्‍याम लाल उपाध्‍याय

डा0 श्‍याम लाल उपाध्‍याय दायें से दूसरे


 



 








कोई पूछे, उसे बता दूँ, कैसे जीता हूँ।
जीवन की दुखियारी चादर कैसे सीता हूँ।

सूखा कहाँ पनप उठता, मुरझाया भी हरियाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर, झड़ियों सा लहराता।

फूल कहीं महकाता मन को, कलिका आस बँधाती।
समझ न पाया, अब तक जग, नियति कहाँ ले जाती।

कैसे, पनप रही, हरियाली, क्‍या थपेड़ क्‍या झड़ियाँ।
कैसी महक कहाँ वह आशा, क्‍या उम्‍मीद की लड़ियाँ।

दु:ख में बीत गये, दिन सारे, आँखें रोती जातीं।
दिन-दिन मोती ही बरसाकर, अपनी व्‍यथा सुनातीं।

कोई पूछे, उसे बता दूँ, कैसे जीता हूँ
जीवन की दुखियारी चादर कैसे सीता हूँ।

1 टिप्पणी:

डा. जन कवि रघुनाथ मिश्र ने कहा…

प्रो.श्याम लाल उपाध्याय की रचना प्रेरणाप्रद है. श्रेष्ट रचना और श्रेष्ट प्रस्तुति के लिए लेखक-बोग्गेर को हार्दिक बधाई.
डा.(जन कवी) रघुनाथ मिश्र