रविवार, 23 दिसंबर 2012

डा0 रघुनाथ मिश्र, कोटा


बनना व बनाना ,कोई आसान नहीं है.
अंदर से दे आनन्दवो सामान नहीं है.
अख़लाक़ की कमी न हो, ये बात जरूरी,
सच्चाई बयानी , कोई अपमान नहीं है.
सारी उमर में आज तलक, होश ही नहीं,
समझ न पायें लोग, वो व्याख्यान नहीं है.
औरों के लिये जिया जो, नादान नहीं है.
जिसमें मदद नहीं, किसी लाचार के लिये,
सचमुच ही मुक़म्मल, वो खानदान नहीं है.
बैठे-बिठाए भेजे, जरूरत की सभी चीज़,
इस जग में इस तरह का, आसमान नहीं है.
कठिनाइयों से जूझ कर फ़ौलाद बनेंगे,
रोना किसी मसले का समाधान नहीं है.

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

ज़मीर दरवेश, मुरादाबाद (उ0प्र0)


हऱ शख्‍़स के चेहरे का भरम खोल रहा है
कम्‍बख्‍़त यह आईना है सच बोल रहा है
खुशबू है कि आँधी है यह मालूम तो कर ले
आहट पे ही दरवाज़े को क्‍यूँ खोल रहा है
तू बोल रहा है किसी मज़लूम के हक़ में
इतनी दबी आवाज़ में क्‍यों बोल रहा है
पैरों को ज़मीं जिसके नहीं छोड़ती वो भी
पर अपने उड़ाने के लिए तोल रहा है
पहले उसे ईमान कहा करते थे शायद
अब आदमी सिक्‍कों में जिसे तोल रहा है

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार  

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

डा0 ओम प्रकाश 'दोस्‍त', कोटा


बारहा बस दिल को अपने ख्‍़वाब दिखलाता हूँ मैं
इस बहाने दोस्‍तो कुछ देर मुस्‍काता हूँ मैं
दूसरों के सामने कहता हूँ खु़द को बादशाह
आईने के रू-ब-रू कहने में शर्माता हूँ मैं
रोज़ कितने लोग मरते देखता हूँ मैं यहाँ
ख़ुद नहीं मर पाउँगा ये सोच इतराता हूँ मैं
कहने को तो हैं बहुत मेरे करमफ़र्मा यहाँ
वक्‍़त पड़ने पर सदा तनहा नज़र आता हूँ मैं
ज़ाहिरा करता हूँ बातें तीर की तलवार की
दर हक़ीक़त मारने-मरने से घबराता हूँ मैं
ये जहाँ फ़ानी है इस की हर अदा नापाएदार
ख़ुद नहीं मानूँ अगर औरों को समझाता हूँ मैं
क़ायदे की बात से बाक़ायदा वाक़िफ़ हूँ पर
क़ायदे की बात ही करने से कतराता हूँ मैं
भूल जाता हूँ सुनाना दास्‍ताने-दर्दो-ग़म
जब कभी ऐ ‘दोस्‍त’ तुझ को सामने पाता हूँ मैं

दृष्टिकोण 8-9 ग़ज़ल विशेषांक से साभार