शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

डा0 दयाकृष्‍ण विजय


नकारो मत कभी अस्तित्‍व छोटा भी इकाई का।
न जाने पत्र कब लिखना पड़े उसको बधाई का।
इकाई तो इकाई, शून्‍य तक की है बड़ी महिमा,
दिला सम्‍मान देती है सहज ही जुड़ दहाई का।
लिखे जो शब्‍द हाथों की लकीरों में पढ़े किसने,
असम्‍भव है न बनना इस सदी में मेरु राई का।
फि‍सल कर लोग गिरते हैं सयाने भी सड़े दह में,
बिसर कर ध्‍यान पनघट की रिसकनी दुष्‍ट काई का।
छिपा बैराट्य चींटी की तनिक सी देह में दिखता।
समझ में अर्थ आ जाये अगर अक्षर अढ़ाई का।
नहीं है व्‍यर्थ जो कुछ भी प्रकृति ने सृज सँवारा है,
दिया हर अवतरण ने मंत्र जीवन की सच्‍चाई का।
'विजय' विश्‍वास थोड़ा तो करो अस्तित्‍व पर अपने,
लगेगा, दे रहा तृण-तृण निमंत्रण आ सगाई का।

2 टिप्‍पणियां:

शरद तैलंग ने कहा…

बहुत अच्छी ग़ज़ल है । वाह वाह !
एक पंक्ति " दिया हर अवतरण मंत्र जीवन की सच्चाई का" में लगता है कुछ टाइपिंग में छूट गया है ।

आकुल ने कहा…

बिल्‍कुल सही 'अवतरण ने मंत्र' आएगा। धन्‍यवाद। त्रुटि सुधार दी है।
आकुल