ये सच न हो तो ऐ मुंसिफ़ो, तुम क़लम हमारी जबान कर दो
मनीषियों, पढ़ के याद कर लो, लिखी है दीवार पर इबारत
चराग़ जो भी जलाये हमने, अगिन लगी है उन्हीं से घर में
ये धर्मग्रन्थों ने हम से बोला- करो मुहब्बत ख़ुदा के
बन्दो
नज़र ये ऐसी लगी है किसकी, भरी जो नफ़रत नज़र-नज़र में
पुजारियो जा के देख आओ, कहीं तुम्हारा खु़दा न हो ये
पड़ी हुई है न जाने कब से, सड़ी हुई लाश मुर्दा घर में
धुआँ धुआँ आदमी हुआ है, तपिश से तहज़ीब जल रही है
कहाँ गई वो हवाऍं ठण्डी, कभी मिली थी जा रहगुज़र में
गुफ़ा से चलकर, गगन को छूकर, ये कौन से युग में आ गये
हम
हवा में बारूद-गंध फैली, भरा हुआ खून हर डगर में
सदी की हर त्रासदी को झेला, हमारी हिम्मत की दाद तो
दो
हामरे संकल्प-सूर्य ने हर निशा को, बदला है फिर सहर
में
जो तिश्ना होठों की प्यास छू ले, मोहब्बतों का
उजास बाँटे
ग़ज़ल तो आख़िर ग़ज़ल है यारो, ग़ज़ल कहो तुम किसी बहर में
हमारे जाने के बाद यारो, ज़माना पूछेगा तुम से आकर
वो एक शायर कहाँ गया है, कभी जो रहता था इस शहर में
जहाँ भी देखो वहीं मिलेगा, मेरे सनम का स्वरूप ऐसा
अनेक रस्ते-अभेद मंज़िल, झुकाओ सर को किसी भी दर में
दिशा-दिशा ने जिसे दुलारा, किरण ने उपनाम दे पुकारा
वहीं बिचारा ‘मयूख’ गुमनाम, हो गया अपने ही शहर में
दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार
1 टिप्पणी:
basheer ahmad maykh ek yugdrasta ki tarah sahityakaaron kaa maargdarshan kar rahe hain. unki shresht ghazal va pratibha ko pranaam.
DR. RAGHUNAATH MISHR
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