मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अश्‍वनी कुमार पाठक, सिहोरा (जबलपुर)


हिन्‍दू कौन, मुस्‍लमाँ कौन्‍ा, एक ख़ुदा के बन्‍दे हैं
ज़हर भेद का बोते जो इंसाँ नहीं दरिन्‍दे हैं
कोयल, कौए, बगुले, हंस किसी जाति के कोई रंग
मुक्‍त गगन के आँगन में उड़ते सभी परिन्‍दे हैं
सब इक माटी के पुतले राम, रहीमा, अल्‍लाबख्‍श
खूँ का, दिल का रिश्‍ता, एक बाकी गोरख धन्‍धे हैं
गीता, बाइबल या कि कुरान, किसी धर्म के पोथे हों
प्रेम, अहिंसा, करुणा के ही सिद्धान्‍त चुनिन्‍दे हैं
मज़हब नहीं सिखाते हैं, बैर, बुराई, लड़ाई जंग
मुट्ठी भर ख़ुदगर्ज़ों ने रचे घिनौने फन्‍दे हैं।। 

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

1 टिप्पणी:

DrRaghunath Mishr 'Sahaj' ने कहा…

congrats for good poem.
DR>RAGHUNATH MISHR