रविवार, 4 नवंबर 2012

गिरीश कांत सक्‍सैना 'दिवाकर', नई दिल्‍ली

घना कोहरा उमस अमावस की काली घटाएँ
एक उजली सी किरण को तरस गया है आदमी
चारों और खून ही खून, शोर शराबा है
ज़िन्‍दगी की आस को तड़प गया है आदमी
हर देहरी, खिड़की चौखट दुबक रो रही
भेड़ियों की भीड़ में भटक गया है आदमी
भाषा जाति धर्मों का, ऐसा ज़लज़ला उठा
अब अपनी ही नज़र में गिर गया है आदमी
चील गिद्ध बाज़ आज़ादी के गीत गा रहे
एक मीठी सी तान को तरस गया है आदमी

दृष्टिकोण-8-9  (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

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