गुरुवार, 8 नवंबर 2012

बाबा कानपुरी, नोएडा


पग–पग पर मक्‍कारी क्‍यों?
अपनों से गद्दारी क्‍यों?
नन्‍हें मुन्‍ने बच्‍चों की
पीठ पे बस्‍ता भारी क्‍यों?
कीमत है जब एक समान
बर्तन हल्‍के-भारी क्‍यों?
अय्‍यारों की बस्‍ती में
फि‍रते यहाँ मदारी क्‍यों?
घर में ग़म की दौलत हे
इस पर हरेदारी क्‍यों?
नंगों की इस बस्‍ती में
आया यहाँ भिखारी क्‍यों?
पढ़े लिखों की महफि‍ल है
बातें फि‍र बाज़ारी क्‍यों?
बात करो सबकी ‘बाबा’
इतनी भी खुद्दारी क्‍यों?

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ् मिश्र् ने कहा…

"पग पग पर मक्कारी क्योँ.अपनोँ से गद्दारी क्योँ."
श्रेश्त रचना के लिये भई बाबा ' कानपुरी' को हार्दिक बधाई.
डा. रघुनाथ मिश्र.