गुरुवार, 25 जुलाई 2013
रविवार, 21 जुलाई 2013
सुधीर गुप्ता 'चक्र'
भई वाह
क्या बात है
तुमने
एक नन्हीं बूँद
गर्म तवे पर डाली
किस तरह तड़पी वह
और
अस्तित्वहीन हो गई
निश्चित ही उसकी
सन्न की आवाज
तुम्हें अच्छी लगी होगी
वरना तुम
ऐसा हरिगिज़ नहीं करते
वो नन्हीं बूँद
तुम्हारी न सही
पर
किसी चिड़िया की तो
प्यास बुझा सकती थी
मैं समझ रहा हूँ
तुम्हारे लिए
खेल है यह
लेकिन
जल भी तो
तुम्हारे अस्तित्व का
एक हिस्सा है
इसलिए
सोचो
वह बूँद कहीं
तुम्हारे हिस्से की तो नहीं थी।
हाल ही में प्रकाशित श्री 'चक्र' की पुस्तक 'क्यों' से साभार।
http://saannidhyadarpan.blogspot.in/2012/09/blog-post.html
क्या बात है
तुमने
एक नन्हीं बूँद
गर्म तवे पर डाली
किस तरह तड़पी वह
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अस्तित्वहीन हो गई
निश्चित ही उसकी
सन्न की आवाज
तुम्हें अच्छी लगी होगी
वरना तुम
ऐसा हरिगिज़ नहीं करते
वो नन्हीं बूँद
तुम्हारी न सही
पर
किसी चिड़िया की तो
प्यास बुझा सकती थी
मैं समझ रहा हूँ
तुम्हारे लिए
खेल है यह
लेकिन
जल भी तो
तुम्हारे अस्तित्व का
एक हिस्सा है
इसलिए
सोचो
वह बूँद कहीं
तुम्हारे हिस्से की तो नहीं थी।
हाल ही में प्रकाशित श्री 'चक्र' की पुस्तक 'क्यों' से साभार।
http://saannidhyadarpan.blogspot.in/2012/09/blog-post.html
बुधवार, 5 जून 2013
श्रीमती संध्या सिंह, मेरठ
'' पुनर्जन्म ''
![]() |
पुनर्जन्म |
![]() |
श्रीमती संध्या सिंह जी |
कब्रगाह सरीखी शेल्फ ,
जिसमे बरसों ......
ठोस जिल्द के ताबूत में
ममी की तरह रखी
अनछुई
मुर्दा किताब ,
जी उठती है अचानक
दो हाथों की ऊष्मा पाकर ,
सांस लेने लगते हैं पृष्ठ
अनायास
उँगलियों का स्पर्श मिलते ही ,
धड़कने लगते हैं शब्द
घूमती हुई
आँख की पुतलियों के साथ ,
बड़ी फुर्ती से रंग भरने लगता है
हर दृश्य में
ज़ेहन का चित्रकार
और चहल कदमी करने लगते हैं
पन्नों से निकल कर
किरदार,
और अंततः ...
गूंजने लगती हैं
आवाजें भी,
कानों में सभी कुछ
बोलने लगती है
एक गूंगी किताब |
यह सब कुछ अचानक हो जाता है
एक निर्जीव पुस्तक के साथ ....
क्यूँ कि ...
लौट आती है आत्मा
उसके भीतर ,
एक संजीदा पाठक
मिलते ही
अकस्मात......!!
http://www.facebook.com/sandhya.singh.9231 संध्याजी से स्वीकृति ले कर उनके फेसबुक पृष्ठ से साभार प्रकाशित।
सोमवार, 3 जून 2013
गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', कोटा
वृक्षों ने ली अँगड़ाई।
नवल कोंपले नीम की
मिश्री संग खाई।
नवल बधाई।
दशकुलवृक्ष कुटुम्ब के
तुम विटप प्रमाण
नख से शिर तक
रोग निवारक रक्षक त्राण
ॠषि मुनि संत शास्त्रों ने
है महिमा गाई।
![]() |
नीम |
नवल बधाई।
पुष्प गुच्छ सुगंधित
मधुमय फल खिरनी से
मधुकर के अनुगुंजन
उच्छृंखल हिरनी से
वृक्षावलि से हरियाली
पथ पथ पर छाई।
नवल बधाई।
नीम तुम्हारा है अस्तित्व
युगों युगों से
मानवता के तुम सहयोगी
युगों युगों से
पर्यावरण मित्र
तुम्हारा संग सुखदाई।
नवल बधाई।
31 मई को 'नवगीत की पाठशाला' में प्रकाशित हुआ। चित्र में 'नीम', शीर्षक 'नवल बधाई' और 'नवगीत की पाठशाला' पर क्लिक करें और विस्तार से जानकारी पायें।
शुक्रवार, 17 मई 2013
डा0 शरदनारायण खरे, मंडला (म0प्र0)
अधरों पर मीठा गान है माँ
हर बच्चे की जान है माँ
जिसको सुनकर ही सूर्य जगे
प्रात: का मंगलगान है माँ
बिस्मिल्ला की शहनाई तो
तानसेन की तान है माँ
जो बाइबिल है, गुरुवाणी है
रामायण और कुरान है माँ
सचमुच जो संध्यावंदन है
आरती-भजन, अज़ान है माँ
सारे घर की रौनक जिससे
हर बच्चे की तो शान है माँ
माँ के रहने से खुशहाली
विधना का इक वरदान है माँ
लक्ष्मी दुर्गा और सरस्वती
देवों का जयगान है माँ
' शरद' आज यह कहता सबसे
जीवन का अरमान है माँ।।
दृष्टिकोण सोपान 11 से साभार
हर बच्चे की जान है माँ

प्रात: का मंगलगान है माँ
बिस्मिल्ला की शहनाई तो
तानसेन की तान है माँ
जो बाइबिल है, गुरुवाणी है
रामायण और कुरान है माँ
सचमुच जो संध्यावंदन है
आरती-भजन, अज़ान है माँ
सारे घर की रौनक जिससे
हर बच्चे की तो शान है माँ
माँ के रहने से खुशहाली
विधना का इक वरदान है माँ
लक्ष्मी दुर्गा और सरस्वती
देवों का जयगान है माँ
' शरद' आज यह कहता सबसे
जीवन का अरमान है माँ।।
दृष्टिकोण सोपान 11 से साभार
मंगलवार, 14 मई 2013
आर0सी0 शर्मा 'आरसी', कोटा
![]() |
आर0 सी0 शर्म |
मां कुछ दिन तू और न जाती,
मैं ही नहीं बहू भी कहती,
कहते सारे पोते नाती.।
मां कुछ दिन तू और न जाती..
हरिद्वार तुझको ले जाता,
गंगा में स्नान कराता ।
कुंभ और तीरथ नहलाता,
कैला मां की जात कराता ।
धीरे धीरे पांव दबाता,
तू जब भी थक कर सो जाती। मां कुछ ...
रोज़ सवेरे मुझे जगाना,
बैठ खाट पर भजन सुनाना ।
राम कृष्ण के अनुपम किस्से,
तेरी दिनचर्या के हिस्से।
कितना अच्छा लगता था जब,
पूजा के तू कमल बनाती। मां कुछ ....
सुबह देर तक सोता रहता,
घुटता मन में रोता रहता ।
बच्चें तेरी बातें करते,
तब आंखों में आंसू झरते।
हाथ मेरे माथे पर रख कर,
मां तू अब क्यों न सहलाती। मां कुछ....
कमरे का वो सूना कोना,
चलना,फ़िरना,खाना,सोना।
रोज़ सुबह ठाकुर नहलाना,
बच्चों का तुझको टहलाना।
जिसको तू देती थी रोटी,
गैया आकर रोज़ रंभाती। मां कुछ....
अब जब से तू चली गई है,
मुरझा मन की कली गई है।
थी ममत्व की सुन्दर मूरत,
तेरी वो भोली सी सूरत।
द्रूढ निश्चय और वज्र इरादे,
मन गुलाब की जैसे पाती।
मां कुछ दिन तू और न जाती.
श्री आर0 सी0 शर्मा 'आरसी' के ब्लॉग से साभार । कविता की पहली गहरी पंक्ति को क्लिक कर उनके ब्लॉग पर प्रकाशित कविता को पढ़ें व उनके ब्लॉग पर भ्रमण करें। उनके चित्र पर अंकित नाम पर क्लिक कर उनके ब्लॉग पर पहुँचें।-आकुल
रविवार, 12 मई 2013
गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', कोटा (राज0)
माँ आँखों से ओझल होती।
आँखें ढूँढ़ा करती रोती।
वो आँखों में स्वप्न
सँजोती।
हर दम नींद में जगती सोती।
वो मेरी आँखों की ज्योति।
मैं उसकी आँखों का मोती।
कितने आँचल रोज़ भिगोती।
कहता घर मैं हूँ इकलौती।
दादी की मैं पहली पोती।
माँ की गोदी स्वर्ग मनौती।
क्या होता जो माँ न होती।
नहीं जरा भी हुई कटौती।
गंगा बन कर भरी कठौती।
बड़ी हुई मैं हँसती रोती।
आँख दिखाती जो हद खोती।
शब्द नहीं माँ कैसी होती।
माँ तो बस माँ जैसी होती।
आज हूँ जो वो कभी न होती।
मेरे संग जो माँ न होती।
शनिवार, 11 मई 2013
आचार्य श्री भगवत दुबे, जबलपुर (म0प्र0)
दोहे
बादामों सा हो गया, मूँगफली का भाव।
सुलभ कहाँ गरीब को, जिनके यहाँ अभाव।।

उल्लू के सिर पर धरा, अभिनन्दन का ताज।
डूब अँधेरे में गया, हंस सुविज्ञ समाज।।
बहती थी जिस भूमि पर, कभी दूध की धार।
आज वहाँ होने लगा, पानी भी दुश्वार।।
पाबन्दी थी शांति पर, बन्दूकों की खास।
कर्फ्यू में आतंक का, देखा चरामोल्लास।।
राजनीति सँग धर्म का, है गठबन्धन आज।
कोढ़ी मजहब को लगी, ज्यों नफरत की खाज।।
भैंस मीडिया की लिए, बैठे आज लठैत।
दूध मलाई चाटते, जिनके यहाँ भटैत।।
श्री कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र' सम्पादित 'मेकलसुता' जन0-मार्च 2013 से साभार।
बादामों सा हो गया, मूँगफली का भाव।
सुलभ कहाँ गरीब को, जिनके यहाँ अभाव।।

उल्लू के सिर पर धरा, अभिनन्दन का ताज।
डूब अँधेरे में गया, हंस सुविज्ञ समाज।।
बहती थी जिस भूमि पर, कभी दूध की धार।
आज वहाँ होने लगा, पानी भी दुश्वार।।
पाबन्दी थी शांति पर, बन्दूकों की खास।
कर्फ्यू में आतंक का, देखा चरामोल्लास।।
राजनीति सँग धर्म का, है गठबन्धन आज।
कोढ़ी मजहब को लगी, ज्यों नफरत की खाज।।
भैंस मीडिया की लिए, बैठे आज लठैत।
दूध मलाई चाटते, जिनके यहाँ भटैत।।
श्री कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र' सम्पादित 'मेकलसुता' जन0-मार्च 2013 से साभार।
सोमवार, 6 मई 2013
सुनील कुमार वर्मा 'मुसाफिर', इंन्दौर (म0प्र0)
समझाते समझाते बहुत थक गया हूँ
लगता है उम्र यूँ ही
बीत जायेगी सबको समझाने में
उथला कुँआ खोदने से कुछ न हासिल होगा
मिलेगा पानी केवल उसको
और गहराने में
बुराई हम में कितनी है इसकी तलाश अंदर करो
क्यों ढूँढ़ते हो उसे बाहर जमाने में
जवाँ हो, ज़हीन हो और खुबसूरत भी
तो दावत क्यों देते हो मौत को
अरे, जो मज़ा ज़िन्दगी में है नहीं है मर जाने में
सिकन्दर को भी पता चला मरने के बाद
मज़ा तो है खाली हाथ आने में
खाली हाथ जाने में
अब हम बच्चे नहीं रहे, बड़े हो गये हैं
कुछ भी नहीं रखा है रूठने और मनाने में
छेड-छाड़, इशारे-विशारे
फ़िकरे-विकरे में कुछ भी नहीं है
कशिश ऐसी पैदा करो कि
वो ख़ुद चलकर आये तेरे दयारों में
अपने काम को अंज़ाम दो पूरी शिद्दत से
कुछ भी नहीं रखा है पुरानी दास्तानों में
तलवारों न कल कुछ हासिल हुआ
न ही कल होगा 'मुसाफिर'
उसे रहने दो अपनी-अपनी म्यानों में।
संदीप 'सृजन' सम्पादित 'शब्द प्रवाह' जुलाई-सितम्बर 2012 अंक से साभार
लगता है उम्र यूँ ही
बीत जायेगी सबको समझाने में
उथला कुँआ खोदने से कुछ न हासिल होगा
मिलेगा पानी केवल उसको
और गहराने में
बुराई हम में कितनी है इसकी तलाश अंदर करो
.jpg)
जवाँ हो, ज़हीन हो और खुबसूरत भी
तो दावत क्यों देते हो मौत को
अरे, जो मज़ा ज़िन्दगी में है नहीं है मर जाने में
सिकन्दर को भी पता चला मरने के बाद
मज़ा तो है खाली हाथ आने में
खाली हाथ जाने में
अब हम बच्चे नहीं रहे, बड़े हो गये हैं
कुछ भी नहीं रखा है रूठने और मनाने में
छेड-छाड़, इशारे-विशारे
फ़िकरे-विकरे में कुछ भी नहीं है
कशिश ऐसी पैदा करो कि
वो ख़ुद चलकर आये तेरे दयारों में
अपने काम को अंज़ाम दो पूरी शिद्दत से
कुछ भी नहीं रखा है पुरानी दास्तानों में
तलवारों न कल कुछ हासिल हुआ
न ही कल होगा 'मुसाफिर'
उसे रहने दो अपनी-अपनी म्यानों में।
संदीप 'सृजन' सम्पादित 'शब्द प्रवाह' जुलाई-सितम्बर 2012 अंक से साभार
गुरुवार, 2 मई 2013
डा0 नौशाब 'सुहैल', दतियवी, दतिया (म0प्र0)

मैं जा रहा हूँ मेरा इंतजार मत करना।
जख़्म अल्फ़ाज़ के कभी नहीं भरते ,
ख़ुदा के लिए तुम ऐसा वार मत करना।
वो आला दर्जे के लोग हैं भाई,
ऐसे लोगों में मेरा शुमार मत करना।
चोट खाई है गर तुमने मुहब्बत में,
ऐसी ख़ता बार बार मत करना।
शिकवा शिकायत दिल से भुला देना,
दो दिलों के बीच दीवार मत करना।
वो किसी के प्यार में दीवाना है,
उसकी बातों पर एतबार मत करना।
इश्क इक आग का दरिया है 'सुहैल',
तुम ये दरिया कभी पार मत करना।
पंकज पटेरिया सम्पादित 'शब्दध्वज' से साभार।
रविवार, 28 अप्रैल 2013
अरुण सेदवाल, कोटा
एक बकरे की व्यथा
यह सही है
यदि वह नहीं करता आत्महत्या
तो कर दी जाती उसकी हत्या
क्योंकि सही ही था उसका मरना
क्योंकि किसी को लाभ नहीं था
उसके जीवित रहने में
न कर्ज़ देने वाले को
न कर्ज़ लेने वाले को
न परिवार को
न सरकार को
अब जब कि मर ही गया है वह
आत्महत्या के बहाने ही सही
सहूकार को मिल गया है
धन बीमा कम्पनी से
मृतक को तो मिल ही गई
मुक्त्िा सब यातना से
परिवार को भी मिल गया मुआवज़ा
जो पर्याप्त था
अगली पीढ़ी तक के लिए
और मिल ही गया नाम
सरकार को भी
कर के बदनाम पिछली सरकार को
एक बकरा जो थ्ज्ञा उसका प्रिय
समझ नहीं पा रहा था
यह सब
केवल रहेगा वही परेशान
कसाई के आने तक।
जनवादी लेखक संघ, कोटा द्वारा 2008 में प्रकाशित 'जन जन नाद' से साभार। श्री सेदवाल अब हमारे बीच नहीं। उन पर समाचार को 'सान्निध्य सेतु' में पढ़ने के लिए उनके नाम अथवा सान्निध्य सेतु को क्लिक करें और पढ़े। यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
यह सही है
यदि वह नहीं करता आत्महत्या
तो कर दी जाती उसकी हत्या
क्योंकि सही ही था उसका मरना
![]() |
अरुण सेदवाल (1943-2013) |
उसके जीवित रहने में
न कर्ज़ देने वाले को
न कर्ज़ लेने वाले को
न परिवार को
न सरकार को
अब जब कि मर ही गया है वह
आत्महत्या के बहाने ही सही
सहूकार को मिल गया है
धन बीमा कम्पनी से
मृतक को तो मिल ही गई
मुक्त्िा सब यातना से
परिवार को भी मिल गया मुआवज़ा
जो पर्याप्त था
अगली पीढ़ी तक के लिए
और मिल ही गया नाम
सरकार को भी
कर के बदनाम पिछली सरकार को
एक बकरा जो थ्ज्ञा उसका प्रिय
समझ नहीं पा रहा था
यह सब
केवल रहेगा वही परेशान
कसाई के आने तक।
जनवादी लेखक संघ, कोटा द्वारा 2008 में प्रकाशित 'जन जन नाद' से साभार। श्री सेदवाल अब हमारे बीच नहीं। उन पर समाचार को 'सान्निध्य सेतु' में पढ़ने के लिए उनके नाम अथवा सान्निध्य सेतु को क्लिक करें और पढ़े। यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013
संजय वर्मा 'दृष्टि', मनावर, जिला- धार (म0प्र0)
सब्जी बेचने वाली महिलाएँ
अपने सर पर उठाए बोझा
मोहल्ले-मोहल्ले घूम कर
आवाज लगाती
'सब्जी ले लो'
कौन कहता है कि महिलाएँ
कमजोर होती हैं
पुरुष सुबह टहलने के लिए
उठने और चलने में
आलस कर जाता है
मगर महिलाएँ आज भी
बच्चों को पालने
घर को सम्हालने
रोजगार में आगे हो गई हैं
पुरुषों से महिलाएँ
स्त्री सशक्तिकरण के पक्ष से
श्रम की परिभाषा
क्या होती है
ये पुरुषों को समझा जाती हैं।
कमलेश व्यास 'कमल' सम्पादित 'शब्द सागर' अखिल भारतीय काव्य संकलन से साभार।

मोहल्ले-मोहल्ले घूम कर
आवाज लगाती
'सब्जी ले लो'
कौन कहता है कि महिलाएँ
कमजोर होती हैं
पुरुष सुबह टहलने के लिए
उठने और चलने में
आलस कर जाता है
मगर महिलाएँ आज भी
बच्चों को पालने
घर को सम्हालने
रोजगार में आगे हो गई हैं
पुरुषों से महिलाएँ
स्त्री सशक्तिकरण के पक्ष से
श्रम की परिभाषा
क्या होती है
ये पुरुषों को समझा जाती हैं।
कमलेश व्यास 'कमल' सम्पादित 'शब्द सागर' अखिल भारतीय काव्य संकलन से साभार।
गुरुवार, 25 अप्रैल 2013
प्रोफेसर हितेश व्यास, कोटा (राज0)

गिरते गिरते ही सँभल जाइयेगा।
फँसत फँसते ही निकल जाइयेगा।
नंगे तारों का इंतज़ाम हो चुका है ,
छूते छूते ही उछल जाइयेगा।
राख और पानी के बावज़ूद आप ,
बुझते बुझते ही जल जाइयेगा।
एक अदद सूरत के वास्ते कृपया,
चाँद और सितारो ढल जाइयेगा।
देवता हैं तो बने रहियेगा पत्थर,
आदमी हैं तो पिघल जाइयेगा।
दृष्टिकोण ग़ज़ल विशेषांक से साभार
बुधवार, 24 अप्रैल 2013
डा0 महाश्वेता चतुर्वेदी, बरेली (उ0प्र0)
माँ ने ममता के घट को छलकाया है।
खोकर इस अमिरत को मन पछताया है।
जिसके आगे इन्द्रासन भी छोटा है,
भव-वैभव जिसके आगे सकुचाया है।
इतराकर अपमान नहीं इसका करना,
माँ को किस्मत वालों ने ही पाया है।
इसके बिन दर-दर भटका करता बचपन,
अंधकार को सौतेलापन लाया है।
ईश्वर की मूरत को ढूँढ़ रहा बाहर,
माँ में ही भगवान रूप मुसकाया है।
उसके आशीषों का सौरभ साथ रहे,
माँ ने ही जीवन उपवन महकाया है।
व्यर्थ गया उसका जीवन 'श्वेता' जिसने,
उसकी आँखों में आँसू छलकाया है।।
श्री विजय तन्हा, सम्पादक और अतिथि सम्पादक श्रीमती स्वर्ण रेखा मिश्रा सम्पादित पत्रकिा 'प्रेरणा' के कवयित्री विशेषांक से साभार।

जिसके आगे इन्द्रासन भी छोटा है,
भव-वैभव जिसके आगे सकुचाया है।
इतराकर अपमान नहीं इसका करना,
माँ को किस्मत वालों ने ही पाया है।
इसके बिन दर-दर भटका करता बचपन,
अंधकार को सौतेलापन लाया है।
ईश्वर की मूरत को ढूँढ़ रहा बाहर,
माँ में ही भगवान रूप मुसकाया है।
उसके आशीषों का सौरभ साथ रहे,
माँ ने ही जीवन उपवन महकाया है।
व्यर्थ गया उसका जीवन 'श्वेता' जिसने,
उसकी आँखों में आँसू छलकाया है।।
श्री विजय तन्हा, सम्पादक और अतिथि सम्पादक श्रीमती स्वर्ण रेखा मिश्रा सम्पादित पत्रकिा 'प्रेरणा' के कवयित्री विशेषांक से साभार।
मंगलवार, 23 अप्रैल 2013
डा0 रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई (उ0प्र0)
अशआर
दर्द का इतिहास है हिन्दी ग़ज़ल
एक शाश्वत प्यास है हिन्दी ग़ज़ल
सभ्यता के नाम पर क्या गाँव से आए शहर
एक प्याला चाय बन कर रह गई है ज़िन्दगी
दोस्ती मतलब परस्ती बन गई
आस्था का सेतु थर्राने लगा
दिल में सौ घाव आँख में पानी
मैंने ये हाल उम्र भर देखा
हमने उनके भी बहुत काम किये
जिनसे अपने न कोई काम चले
हम ख़यालों में सही, पर आपके ही साथ में
उड़ के छूना चाहते हैं, नित ऊँचाइयाँ
श्री अशोक अंजुम और शंकर प्रसाद करगेती सम्पादित 'प्रयास' के स्वर्ण जयंती अंक से आभार
दर्द का इतिहास है हिन्दी ग़ज़ल

सभ्यता के नाम पर क्या गाँव से आए शहर
एक प्याला चाय बन कर रह गई है ज़िन्दगी
दोस्ती मतलब परस्ती बन गई
आस्था का सेतु थर्राने लगा
दिल में सौ घाव आँख में पानी
मैंने ये हाल उम्र भर देखा
हमने उनके भी बहुत काम किये
जिनसे अपने न कोई काम चले
हम ख़यालों में सही, पर आपके ही साथ में
उड़ के छूना चाहते हैं, नित ऊँचाइयाँ
श्री अशोक अंजुम और शंकर प्रसाद करगेती सम्पादित 'प्रयास' के स्वर्ण जयंती अंक से आभार
सोमवार, 22 अप्रैल 2013
मथुरा प्रसाद जोशी, हौशंगाबाद (म0प्र0)
माँ की शिक्षा ने जीवन में, ऐसा दीप जलाया।
मिटा तिमिर अज्ञान हृदय का अंजन नयन लगाया।
अंतरपट अंतस में रक्खी मुझसे नहीं छिपाएँ।
झिड़की की खिड़की से खुलती मानों दसों दिशाएँ।
सुनी बीरता और साहस की अनुपम शौर्य कथाएँ।
माता के होठों के चुम्बन से अमृत है फीका।
इस दुलार सा नहीं मिला कुछ जगत् में नीका।
मद्राचल सी किन्तु कर कोमल थामे मेरा।
सागर की गइराई थोड़ी थाह न पाया तेरा।
मलयाचल साँसों में जिसकी वन-उपवन में डेरा।
बाहों के झूले में होता मेरा नित्य सवेरा।
ऊषा की किरणों सा कोमल माँ का हर स्पंदन।
उसने काटे हैं दुनियाँ के सभी जटिलतर बंधन।
माँ के चरणों में दुनिया का हर वैभव बसता है।
केवल सेवा से मिल जाता है तो भी तो सस्ता है।
'शब्द प्रवाह' वार्षिक काव्य विशेषांक अंक 14 से साभार।
शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013
सनातन कुमार वाजपेयी 'सनातन', जबलपुर (म0प्र0)
खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।
हर गली पर रो रही हैं वेदनायें।।
नृत्य-रत आतंक निष्ठुर घात करता।
स्वार्थ भ्रष्टाचार सबको मात करता।
रुग्ण हैं शुभ साधनों की कल्पनायें।।
उच्चता के मान में प्रासाद खोयें।
दैन्य ले अपमान का अवसाद ढोंयें।
शांति सुख की शेष कोरी अल्पनायें।।
रवि-प्रभा व्याकुल न जी भर खिल रही है।
ज्योत्सना केवल बड़ों को मिल रही है।
मानते हैं अब न कोई वर्जनायें।।
आज सब सद्भाव बौने हो गये हैं।
जो कभी थे श्रेष्ठ छौने हो गये हैं।
अब कहीं पर हो ना पाती सर्जनायें।।
शुष्क नद, नदियाँ, सिसकतें चाँद तारे।
मिल न पाते शांति के शीतल किनारे।
सो गई जाने कहाँ सब अल्पनायें।।
खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।।
भारतेंदु समिति, कोटा द्वारा प्रकाशित
त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'चिदम्बरा' अप्रेल-सितम्बर 2012 (संयुक्तांक) से साभार।
हर गली पर रो रही हैं वेदनायें।।
.jpg)
स्वार्थ भ्रष्टाचार सबको मात करता।
रुग्ण हैं शुभ साधनों की कल्पनायें।।
उच्चता के मान में प्रासाद खोयें।
दैन्य ले अपमान का अवसाद ढोंयें।
शांति सुख की शेष कोरी अल्पनायें।।
रवि-प्रभा व्याकुल न जी भर खिल रही है।
ज्योत्सना केवल बड़ों को मिल रही है।
मानते हैं अब न कोई वर्जनायें।।
आज सब सद्भाव बौने हो गये हैं।
जो कभी थे श्रेष्ठ छौने हो गये हैं।
अब कहीं पर हो ना पाती सर्जनायें।।
शुष्क नद, नदियाँ, सिसकतें चाँद तारे।
मिल न पाते शांति के शीतल किनारे।
सो गई जाने कहाँ सब अल्पनायें।।
खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।।
भारतेंदु समिति, कोटा द्वारा प्रकाशित
त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'चिदम्बरा' अप्रेल-सितम्बर 2012 (संयुक्तांक) से साभार।
गुरुवार, 18 अप्रैल 2013
विजेन्द्र कुमार जैन, कोटा
कुछ बच्चे, जिनके
कंधे पर होने चाहिए थे बस्ते
उनके कंधे पर देखता हूँ
लटके हुए मोमजामें के थैले और
सड़क पर बिखरी हुई
प्लास्टिक की थैलियों को
समेटते हुए वे छोटे छोटे हाथ
सुनता हूँ उनके अबोध
हँसते मस्ती में गाते फिल्मी गीत
काश ! पैबन्द का दर्द जान पाते
किन्तु वे उनमें जींस का आनंद लेते
बेखौफ़ बचपन का मज़ाक उड़ाते
पूछना चाहता हूँ, उन्हें रोक कर, पर
फिल्मों से चुराया एक शब्द बोलते हैं-
सॉरी ! हमें जल्दी है
कल नये साल की खुशियाँ मनाई थीं न
शहर में बहुत कचरा फैला हुआ है
समेटना है, कमाई करनी है
आज खूब माल मिलेगा
और फिर हम भी मनायेंगे नया साल।।
लेखक की पुस्तक 'कचरे का ढेर' से साभार।
![]() |
garbage collection |
उनके कंधे पर देखता हूँ
लटके हुए मोमजामें के थैले और
सड़क पर बिखरी हुई
प्लास्टिक की थैलियों को
समेटते हुए वे छोटे छोटे हाथ
सुनता हूँ उनके अबोध
हँसते मस्ती में गाते फिल्मी गीत
काश ! पैबन्द का दर्द जान पाते
किन्तु वे उनमें जींस का आनंद लेते
बेखौफ़ बचपन का मज़ाक उड़ाते
पूछना चाहता हूँ, उन्हें रोक कर, पर
फिल्मों से चुराया एक शब्द बोलते हैं-
सॉरी ! हमें जल्दी है
कल नये साल की खुशियाँ मनाई थीं न
शहर में बहुत कचरा फैला हुआ है
समेटना है, कमाई करनी है
आज खूब माल मिलेगा
और फिर हम भी मनायेंगे नया साल।।
लेखक की पुस्तक 'कचरे का ढेर' से साभार।
बुधवार, 17 अप्रैल 2013
श्रीमती सरिता गौतम, राजहरा, जिला दुर्ग (छ0ग0)
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राह तकती आज, बीमार बूढ़ी माँ ।
राँधती पकवान, तेरे ही पसंदीदा,
यूँ मना लेती है,हर त्योहार बूढ़ी माँ ।
इस जहाँ में और तो, कोई नहीं उसका,
मानती तुझको है, हर त्योहार बूढ़ी माँ ।
छाँव रखने को सदा, औलाद के सिर पर,
झेलती खुद ही रही, अंगार बूढ़ी माँ ।
ढूँढ़ता फिरता है जिसको मंदिरों में तू,
है वह देवी का ही इक अवतार बूढ़ी माँ ।
जब कभी देखा 'मधु' मुझको नज़र आई,
तेज चलती साँस की, रफ्तार बूढ़ी माँ ।
दशम सम्मान समारोह (2011) पर प्रकाशित डा0 कृष्ण मणि चतुर्वेदी 'मैत्रेय' सम्पादित
'सरिता संवाद' (वार्षिक) से साभार ।
मंगलवार, 16 अप्रैल 2013
राम प्रसाद अटल, जबलपुर (म0प्र0)
रक्त बीज सम घोटालों का, भारत भूमि पर चलन हुआ है।
धार बह रही पूर्ण देश में, गंगा सा अवतरण हुआ है।
ॠषि मुनियों के आदर्शों की,खूब धज्जियाँ उड़ा रहे हैं,
सदाचार, नैतिकता का तो, किस हद तक अब क्षरण हुआ है।
पर धन पर आधारित भारत, लूट खसोट मूल मंत्र है ,
उड़ा रहे कानून की खिल्ली, ऐसा भ्रष्ट आचरण हुआ है।
देश का उपवन चर रहे हाथी, बकरी, भेड़ खड़ी मिमियाती,
सह-अस्तित्व पूछते क्या है, खाली अंत:करण हुआ है।
रातों के अंधियारे में तो, लुटे बहुत से माल खजाने,
अब दिन के उजियारे देखो, अरबों का धन हरण हुआ है।
कानून अपंग रहा देश का, घिस-घिस कर चमकाते हैं ,
आते-आते गई चमक फिर, बहुतों का तो मरण हुआ है।
नम्बर वन बनने को भ्रष्ट, कोशिश जारी है दिन रात,
डरते हैं कमज़ोर मगर, पुरजोरों का आमरण हुआ है।
धन वैभव किसके दास हुए, नहीं रही सोने की लंका,
स्वर्ण मृग के कारण ही तो, इक दिन सीता हरण हुआ है।
चाँद सितारों से हम चमके, अटल हमें इतिहास बताता,
वो तारे अब धम-धम गिरते, ऐसा अध:पतन हुआ है।।
संदीप 'सृजन' सम्पादित 'शब्द प्रवाह' जनवरी-मार्च वार्षिक काव्य विशेषांक से साभार।
धार बह रही पूर्ण देश में, गंगा सा अवतरण हुआ है।
ॠषि मुनियों के आदर्शों की,खूब धज्जियाँ उड़ा रहे हैं,
सदाचार, नैतिकता का तो, किस हद तक अब क्षरण हुआ है।
पर धन पर आधारित भारत, लूट खसोट मूल मंत्र है ,
उड़ा रहे कानून की खिल्ली, ऐसा भ्रष्ट आचरण हुआ है।
देश का उपवन चर रहे हाथी, बकरी, भेड़ खड़ी मिमियाती,
सह-अस्तित्व पूछते क्या है, खाली अंत:करण हुआ है।
रातों के अंधियारे में तो, लुटे बहुत से माल खजाने,
अब दिन के उजियारे देखो, अरबों का धन हरण हुआ है।
कानून अपंग रहा देश का, घिस-घिस कर चमकाते हैं ,
आते-आते गई चमक फिर, बहुतों का तो मरण हुआ है।
नम्बर वन बनने को भ्रष्ट, कोशिश जारी है दिन रात,
डरते हैं कमज़ोर मगर, पुरजोरों का आमरण हुआ है।
धन वैभव किसके दास हुए, नहीं रही सोने की लंका,
स्वर्ण मृग के कारण ही तो, इक दिन सीता हरण हुआ है।
चाँद सितारों से हम चमके, अटल हमें इतिहास बताता,
वो तारे अब धम-धम गिरते, ऐसा अध:पतन हुआ है।।
संदीप 'सृजन' सम्पादित 'शब्द प्रवाह' जनवरी-मार्च वार्षिक काव्य विशेषांक से साभार।
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