दोहे
बादामों सा हो गया, मूँगफली का भाव।
सुलभ कहाँ गरीब को, जिनके यहाँ अभाव।।

उल्लू के सिर पर धरा, अभिनन्दन का ताज।
डूब अँधेरे में गया, हंस सुविज्ञ समाज।।
बहती थी जिस भूमि पर, कभी दूध की धार।
आज वहाँ होने लगा, पानी भी दुश्वार।।
पाबन्दी थी शांति पर, बन्दूकों की खास।
कर्फ्यू में आतंक का, देखा चरामोल्लास।।
राजनीति सँग धर्म का, है गठबन्धन आज।
कोढ़ी मजहब को लगी, ज्यों नफरत की खाज।।
भैंस मीडिया की लिए, बैठे आज लठैत।
दूध मलाई चाटते, जिनके यहाँ भटैत।।
श्री कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र' सम्पादित 'मेकलसुता' जन0-मार्च 2013 से साभार।
बादामों सा हो गया, मूँगफली का भाव।
सुलभ कहाँ गरीब को, जिनके यहाँ अभाव।।

उल्लू के सिर पर धरा, अभिनन्दन का ताज।
डूब अँधेरे में गया, हंस सुविज्ञ समाज।।
बहती थी जिस भूमि पर, कभी दूध की धार।
आज वहाँ होने लगा, पानी भी दुश्वार।।
पाबन्दी थी शांति पर, बन्दूकों की खास।
कर्फ्यू में आतंक का, देखा चरामोल्लास।।
राजनीति सँग धर्म का, है गठबन्धन आज।
कोढ़ी मजहब को लगी, ज्यों नफरत की खाज।।
भैंस मीडिया की लिए, बैठे आज लठैत।
दूध मलाई चाटते, जिनके यहाँ भटैत।।
श्री कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र' सम्पादित 'मेकलसुता' जन0-मार्च 2013 से साभार।
1 टिप्पणी:
बादामों सा हो गया, मूँगफली का भाव।
सुलभ कहाँ गरीब को, जिनके यहाँ अभाव।।
मौजूदा सूरत-ए-हाल से रूबरू कराते दोहोँ के लिये लेखक को बधाई.
-डा. रघुनाथ मिश्र्
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