बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

शैलेन्‍द्र शर्मा, कानपुर

कर्जों की बैसाखी पर है, दौड़ रही रौनक
व्‍याप रही है अगल-बगल में, जिसकी एक हनक।
फ्रि‍ज, टी0वी0, वाशिंग मशीन औऱ वेक्‍यूम क्‍लीनर।
सोफ़ों, पर्दों, कालीनों से दमके सारा घर।
जेबें नहीं टटोली अपनी ऐसी चढ़ी सनक।।
दो पहियों को धक्‍का देकर, घुसे चार पहिये।
महँगा मोबाइल पाकिट में, लॉकिट क्‍या कहिये।
किश्‍तों में जा रही पगारें ऊपर तड़क-भड़क।।
दूध, दवाई, फल, सब्‍जी पर कतर-ब्‍यौंत चलती।
माँ के चश्‍मे की हसरत भी रहे हाथ मलती।
बात-बात पर घरवाली भी देती उन्‍हें झड़क।।
नून, तेल, लकड़ी का चक्‍कर, रह-रह सिर पकड़े।
फि‍र भी चौबिस घंटे रहते वो अकड़े-अकड़े।
दूर-दूर तक मुस्‍कानों की दिखती नहीं झलक।।
दृष्टिकोण-7 से साभार

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

मौजूदा सूरतेहाल- विसंगतियोँ का मानचित्र है यह कविता. बधाई.
डा. रघुनाथ मिश्र्