मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

तूलिका शर्मा

मैं स्‍त्री
एक किताब सी
जिसके सारे पन्‍ने कोरे है
कोरे इसलिए
क्‍योंकि पढ़े नहीं गये
वो नज़र नहीं मिली
जो हृदय से पढ़ सके
बहुत से शब्‍द रखे हैं उसमें
अनुच्‍चारित
तूलिका शर्मा
भावों से उफनती सी
लेकिन अबूझ
बातों सें लबरेज़
मगर अनसुनी
किसी महाकाव्‍य सी फैली
पर सर्गबद्ध 
धर्मग्रंथ सी पावन
किन्‍तु अनछुई
 तुम नहीं पढ़ सकते उसे
बाँच नहीं सकते उसके पन्‍ने
क्‍योंकि तुम वहीं पढ़ सकते हो
जितना तुम जानते हो
और तुम नहीं जानते 
कि कैसे पढ़ा जाता है
सरलता से दुरूहता को
कि कैसे किया जाता है
अलौकिक का अनुभव
इस लोक में भी

2 टिप्‍पणियां:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

toolikaa sharmaa kee rachanaayen shresht-sahajagraahya hone ke saath- saath 'kaavya mein stree vimarsh' ke liye bhee prerit kartee hai. toolikaa ji ko hardik badhaai va ashesh mangal kaamanaayen.
DR. RAGHUNATH MISRA

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…
toolikaa sharmaa kee rachanaayen shresht-sahajagraahya hone ke saath- saath 'kaavya mein stree vimarsh' ke liye bhee prerit kartee hai. toolikaa ji ko hardik badhaai va ashesh mangal kaamanaayen.
DR. RAGHUNATH MISRA