रविवार, 21 अक्तूबर 2012

श्रद्धा जैन, सिंगापुर

श्रद्धा जैन
घटा से घिर गई बदली नज़र नहीं आती
बहा ले नीर तू उजली नज़र नहीं आती
हवा में शोर ये कैसा सुनाई देता है
कहीं पे गिर गई बिजली नज़र नहीं आती
हैं चारों ओर नुमाइश के दौर जो यारो
दुआ भी अब यहाँ असली नज़र नहीं आती
चमन में ख़ार ने पहने गुलों के चेहरे हैं
कली कोई कहाँ कुचली नज़र नहीं आती
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नहीं आती

1 टिप्पणी:

दडा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

श्रेश्त रचन के लिये सधुवाद.
डा. रघुनाथ मिश्र्