सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

राकेश खण्‍डेलवाल

सीपियों में मोतियों की लग गई लड़िया सँवरने
वाटिकाओं में कपोलों की लगे फि‍र फूल खिलने
कोर आकर अधर के रुक गया कोई सितारा

धुल गये पल सब अनिश्‍चय के हृदय से
खोल परदा रश्मियाँ फि‍र मुस्‍काराई
बन्दिनी थी भावना मन के विवर मे
ज्‍योत्‍सना को ओढ़ फि‍र से जगमगाई
राकेश खण्‍डेलवाल
रंग उजड़े रंग में फि‍र से भरे नव
फाग छेड़े कुछ नये पुरवाइयों ने
एक बादल को लिया भुजपाश में भर
कसमसाकर थक रही अँगड़ाइयों ने
स्‍वप्‍न ने शृंगार कर निज को सँवारा
वेदना ने स्‍पर्श जब पाया तुम्‍हारा।।

रात की सूनी पड़ी पगडंडियों पर
पालकी आई उतर निशिगंध वाली
वेणियों के पुष्‍प्‍गुच्‍छों से इतर ले
माँग अपनी नव उमंगों से सजा ली
लग पड़ी बुनने छिटकती रश्मियों से
भोर के पथ में बिछाने को गलीचे
नीर ले सौगंध के आभास वाला
क्‍यारियों में फि‍र नये विश्‍वास सींचे।
नोन राई ले कलुष सारा उतारा।
वेदना ने स्‍पर्श जब पाया तुम्‍हारा।

कुछ नये अध्‍याय खोले रागिनी ने

पीर की सारंगियों की धुन बदलकर
चढ़गई मुंडेर अभिलाषायें नूतन
कामना की सीढ़ियों पर पाँव धर कर
तोड़ कर तटबंध सारे संयमों के
जाह्नवी निर्बाध उमड़ी भावना की
जिन्‍दगी के तप्‍त मरुथल में लगा यों
आ गई घिर कर घटायें साधना की
ढल गया सारा सुधा में अश्रु खारा
वेदना ने स्‍पर्श जब पाया तुम्‍हारा।।

श्री राकेशजी के ब्‍लॉग गीतकार की कलम से साभार

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

'धुल गये पल सब अनिशय के ह्रिदय के' वाह.
डा. रघुनाथ मिश्र.