मंगलवार, 18 सितंबर 2012

पूर्णिमा वर्मन

यादों की घनी छाँह से पर्वत के देवदार
बचपन के एक गाँव से पर्वत के देवदार

गरमी की तंग साँस में राहत बने हुए
भीगे हुए तुषार से पर्वत के देवदार

मौसम की भीड़ भाड़ में मिश्री घुले हुए
शरबत का एक गिलास से पर्वत के देवदार

साँपों-सी लिपटती हुई सड़कों का कारवाँ
चंदन के एक दयार से पर्वत के देवदार

गहमी हुई पहाड़ियों में टट्‌टुओं का शोर
ठहरे हुए गुबार से पर्वत के देवदार

1 टिप्पणी:

जन कवि डॉ. रघुनाथ मिश्र ने कहा…

पूर्णिमा बर्मन जी सारी दुनिया में 'अनुभूति' और 'अभिव्यक्ति'जैसी श्रेष्ट ई- पत्रिकाओं के जरिये हिंदी बांग्मय को समृद्ध करने में श्रेष्ट भूमिका अदा कर ही रही हैं.दर्पकं पर उन्हें पढवाने के लिए 'आकुल' को श्रेय जाता है और श्रेष्ट-प्रेरक-उद्धरणीय रचना प्रस्तुति के लिए पूर्णिमा जी ,जिनके अनेक प्रशंसकों में मैं भी हूँ,को हार्दिक बधाई.
जन कवि डॉ.रघुनाथ मिश्र