रविवार, 14 अप्रैल 2013

डा0 इंद्रबिहारी सक्‍सैना, कोटा

हो मंगलमय वर्ष सभी को
मुक्त्‍िा मिले अवसादों से
हो न प्रदूषित निर्मल निर्झर
कटु, विषाक्‍त संवादों से।

उत्‍पीड़न का ज्‍वार थमे
सद्भाव शीघ्र स्‍थापित हो
पुण्‍य धरा गौतम, गाँधी की
प्रभु न कभी अभिशापित हो।

बाढ़, भूख, भूकम्‍पन की अब
पड़े न काली परछाईं
फूले-फले सुरभि दे सबको
उत्‍कर्षों की अमराई।

कटुता, संशय, मन का कल्‍मष
हो धोने की तैयारी
रंग बिखेरे हर आँगन में ,
फि‍र होली की पिचकारी।

लेखक की पुस्‍तक 'मरु में महके गीत-प्रसून' से साभार । 

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

रघुराज सिंह 'निश्‍चल', मुरादाबाद (उ0प्र0)

हवाओं का रुख अब बदलने लगा है
मनुज को मनुज आज छलने लगा है।
अभी तक जो भरते थे दम दोस्‍ती का,
उन्‍हें बात करना भी खलने लगा है।
मिली हमको जिस दिन से थोड़ी शोहरत,
ग़ज़ब है कि हर दोस्‍त जलने लगा है।
नई सभ्‍यता की चली जब से आँधी,
हया का जनाजा निकलने लगा है।
यह दुनिया दिखावे की ही रह गई है,
दिखावे को हर मन मचलने लगा है।
इन आतंकियों पर नियंत्रण नहीं है,
धमाकों से जग अब दहलने लगा है।
भरोसे के क़ाबिल नहीं कोई 'निश्‍चल',
ज़बाँ से अब इंसान फि‍सलने लगा है।

श्री मुकेश 'नादान' सम्‍पादित *साहित्‍यकार-4* से साभार 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

सम्‍मान्‍यश्री अटलबिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत

स्‍वतंत्रता दिवस की पुकार 

15 अगस्‍त का दिन कहता,आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है।।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत
जिनकी लाशों पर पग धर कर, आज़ादी भारत में आयी।
वे अब तक है खानाबदोश, गम की काली बदली छायी।।

कलकत्‍ते के फुटपाथों पर, जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्‍द्रह अगस्‍त के,बारे में क्‍या कहते हैं।।

हिन्‍दू के नाते उनका दु:ख, सुनते यदि तुम्‍हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो, सभ्‍यता जहाँ कुचली जाती।।

इन्‍सान जहाँ बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्‍लाम सिसकियाँ भरता है, डॉलर मन में मुस्‍काता है।।

भूखों को गोली, नंगों को, हथियार पिन्‍हाये जाते हैं।
सू्खे कंठों से जेहादी, नारे लगवाये जाते हैं।।

लाहौर, कराची, ढाका पर, मातम की है काली छाया।
पख्‍तूनों पर, गिलगित पर है, ग़मगीन ग़ुलामी का साया।।

बस, इसीलिए कहता हूँ, आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्‍लास मनाऊँ मैं, थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को, पुन: अखंड बनायेंगे।
गिलगिट से गारो पर्वत तक, आज़ादी पर्व मनायेंगे।।

उस स्‍वर्ग दिवस के लिए आज से, कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जायँ, जो खोया उसका ध्‍यान करें।।

प्रो0 श्‍यामलाल उपाध्‍याय सम्‍पादित *काव्‍य मंदाकिनी* (2009-10)
राष्‍ट्रीय भावधारा अंक काव्‍य संग्रह से  साभार।  

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

मुखराम माकड़ माहिर , रावतसर, जिला हनुमानगढ़ (राजस्‍थान)

कण कण में रमते श्रीराम
जन जन के मन में घनश्‍याम
डग-डग पर है पावन धाम
किरीट हिमगिरि धवल ललाम
करते देव यक्ष नित वन्‍दन।
मेरे देश की माटी चन्‍दन।।

गूँजे वरद वेद की बानी
सदा नीरा नदियाँ सुहानी
तिरंगा कहे मुक्ति कहानी
संत भक्‍त की अमर निशानी
षट् ॠतुओं का नन्‍दनवन।
मेरे देश की माटी चन्‍दन ।।

सब धर्मों की यह फुलवारी
महक रही केसरिया क्‍यारी
जगत् गुरु की महिमा न्‍यारी
दुर्गा रमा शिवा सी नारी
जलधि करे चरणों का चुम्‍बन।
मेरे देश की माटी चन्‍दन।

डा0 जयसिंह अलवरी सम्‍पादित 'राष्‍ट्र नमन' काव्‍य संकलन से साभार। 

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

कपिलेश भोज, सोमेश्‍वर, अलमोड़ा (उ0खं0)

कीमती से कीमती
विचार जो
तुम्‍हीं तक
रह जाएँ सीमित
किताबों में ही
होकर रह जाएँ कैदी
न पहुँचें जो
हजारों-हजार
दिलों तक अँधेरे में
फूट न सकें
उजाले की तरह और
जगा न सकें
संकल्‍प और
सपने नये तो
किस काम के हैं
वे विचार और
किसलिए लादे
फि‍र रहे हो
तुम अकेले ही उन्‍हें
इस वीराने में
आओ
मिल-जुल कर
विचारों को दें
हम उस तरह
जिन्‍दगी जैसे
बीजों को देते हैं
मिट्टी, खाद और पानी-----

श्री रवींद्र शर्मा, बिजनौर  सम्‍पादित 'काव्‍य सरोवर' से साभार    

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

डा0 ईश्‍वर चंद 'गंभीर',दतियाना, गाजियाबाद (उ0प्र0)


आदमी को छल रहा है आदमी
है थका पर चल रहा है आदमी
आज दुश्‍मन आदमी का आदमी
पर सहारा कल रहा है आदमी
राजनीति रोटियाँ खाकर यहाँ
मुफ़्त में ही पल रहा है आदमी
जो शिवा, नानक कभी गौतम रहा
देश का संबल रहा है आदमी
दूर है कर्तव्‍य से सन्‍मार्ग से
द्वेश से अब जल रहा है आदमी
आदमी दुर्लभ कृति भगवान की
दानवों में ढल रहा है आदमी
आज तिनके की तरह ‘गंभीर’ बिखरा
साथ था जब बल रहा है आदमी।

मुकेश 'नादान' सम्‍पादित पुस्‍तक साहित्‍यकार-2 से साभार 

रविवार, 7 अप्रैल 2013

कृष्‍ण कुमार यादव, पोर्टब्‍लेयर (अंडमान निकोबार द्वीप समूह)

रिश्‍तों के बदलते मायने
अब वे अहसास नहीं रहे
बन गए अहम् की पोटली
ठीक अर्थशास्‍त्र के नियमों की तरह
त्‍याग की बजाय माँग पर आधारित
हानि और लाभ पर आधारित
शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव की तरह
दरकते रिश्‍ते, ठीक वैसे ही
जैसे किसी उद्योगपति ने
बेच दी हो घाटे वाली कम्‍पनी
बिना समझे किसी के मर्म को
वैसे ही टूटते रिश्‍ते
आज के समाज में और
अहसास पर
हावी होता जाता है अहम् ।

श्री मुकेश 'नादान' सम्‍पादित पुस्‍तक  *साहित्‍यकार-4* से साभार

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

संतोष सुपेकर, उज्‍जैन (म0प्र0)

क्‍या पड़ी हमें, जो बंद करें
एक बहता हुआ नल
हम आज़ाद जो ठहरे।
क्‍या पड़ी हमें, जो बंद करें
दिन में जलता बल्‍ब
हम आज़ाद जो ठहरे।
क्‍या पड़ी हमें, जो मदद करें
एक बेबस, बेसहारा की
हम आज़ाद जो ठहरे।
यों बचाएँ हम पैट्रोल-डीज़ल
क्‍यों पालन करें सड़क नियमों का
हम आज़ाद जो ठहरे।
ये आज़ादी है या उच्‍छृंखलता?
हमें क्‍या पड़ी है, जो हम सोचें
हम आज़ाद जो ठहरे।।

उनकी पुस्‍तक *चेहरों के आरपार* से साभार।

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

रेखानंद बरोड़, चूरू (राजस्‍थान)

लाल रवि उगने वाला है, लाली ज्‍यों बतलाती है ।
जाग,  जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

यह तो नगरी चोर, ठगों की, यहाँ लुभाया जाता है।
हर बार यहाँ पर, भेष बदल कर भी भरमाया जाता है।
मुर्गों वाली मीठी बोली, बात यही बतलाती है।
जाग,  जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

तेरे भोलेपन से खेत-खलिहान, लुटेरे लूट रहे।
ओ मज़दूरी करने वाले, तुझे बोलते झूठ रहे।
चोर,  लुटेरों की दुनिया तो, हरदम मौज मनाती है ।
जाग, जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

मेहनतकश तू गोलबंद हो, चींटी की फ़ि‍तरत कहती है।
चोरी-चकारी से चौकस हो, आज हक़ीक़त कहती है।
तज दे आलस, उठ जा साथी, चोर, चोर के नाती हैं।
जाग, जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

बाँध कमरिया मजबूती से, पकड़ मार्ग जो हो सच्‍चा।
भरम सिला के टुकड़े कर दे, फाड़ दे तू चिट्ठा कच्‍चा।
श्रमजीवी ताक़त ही बस, इतिहस नया लिखवाती है।
जाग, जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

जनवादी लेखक संघ, कोटा  से प्रकाशित 
*जनवाद  का प्रहरी * से साभार

रविवार, 31 मार्च 2013

संदीप सृजन फाफरिया, उज्‍जैन (म0प्र0)

जब भी मिलता है बड़े प्‍यार से मिलता है
एक वो ही है जो अधिकार से मिलता है

जीत के बाद सब कुछ भुला देते हैं लोग
सोचने का अवसर तो हार से मिलता है

खरा इतना है, उसकी जुबान का अंदाज़
चाकू, कैंची और तलवार से मिलता है

अनुभवों का ख़ज़ाना ज़िन्‍दगी की नाव को
किनारों नहीं मझधार से मिलता है

हाल-चाल जानने को आसपास *सृजन* 
बशर-बशर से नहीं अखबार से मिलता है

*शब्‍द प्रवाह* वार्षिक काव्‍य विशेषांक जनवरी-मार्च 2012 से साभार 

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'

वक्‍़त का तगादा है

बस्‍ति‍याँ रोशन करने का वादा है।
अँधेरों से दोस्‍ती करने का इरादा है।
मुद्दतों से काबि‍ज़ हैं दि‍न रात की दूरि‍याँ,
दूर करने को उफ़ुक भी आमादा है।
ऐसे सहरा हैं जहाँ रात को उगता है सूरज,
वहाँ ना कोई बस्‍ती है ना नर ना कोई मादा है।
फ़लक़ पे सि‍तारों का कारवाँ हो तो हो,
जमीं को तो आफ़ताब भी ज़ि‍यादा है।
उसके यहाँ देर सही मगर अंधेर नहीं,
वहाँ न कोई कमज़ोर है न कोई दादा है।
हक़ अदा कर मत उँगली उठा कि‍सी पर,  
शतरंज की बि‍सात का तू इक पि‍यादा है,
हाथ थाम मौक़ा मि‍ले न मि‍ले फि‍र ‘आकुल’,
दोस्‍ती कर यह वक्‍़त का तगादा है।

शनिवार, 26 जनवरी 2013

डा0 नलिन, कोटा

डा0 नलिन की पुस्‍तक 'चाँद निकलता होगा' हाल ही में प्रकाशित उनका ग़ज़ल संग्रह है। इसका रसास्‍वादन करें। ई-पुस्‍तक के रूप में आपके लिए प्रस्‍तुत है, उनकी पुस्‍तक। उनकी एक प्रतिनिधि ग़ज़ल आपकी नज़र है

पटरी पर पहियों के चलते
जैसे चाहो शब्‍द निकलते।
डा0 नलिन गोष्‍ठी में काव्‍य पाठ करते हुए
मानो तो संगीत बसा है
और न मानो तो सुर खलते।
धरती की यदि तपन देख ली
पाँव रहेंगे प्रतिपल जलते।
निगले कैसे कैसे विष हैं
जिनको बनता नहीं उगलते।
पाँवों तले न जाने क्‍या था
पल पल जिस पर रहे फि‍सलते
आ ही जाती है सुध-बुध भी
जीवन की संध्‍या के ढलते।
सब भटके हैं दौड़ भाग कर
बढ़ते जाते 'नलिन' टहलते।।

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

डा0 अशोक मेहता, कोटा

माँ

जीवन की प्रथम ध्‍वनि
प्रथम शब्‍द
पहला अहसास
उस व्‍यक्त्वि के लिए, जिसने
जन्‍म दिया
पाला-पोसा
समझाया
सुरक्षा दी
मैं जन्‍म से,
जिसका अहसानमंद हूँ

माँ
एक मधुर स्‍मृति
मन की गहराई में
प्रज्‍ज्‍वलित
एक दीया

माँ
ममता का
आदमकद शीशा, जिसमें
परिलक्षित
नभांतरित प्‍यार

माँ
मन में कुछ उमड़ा
और कागज़ को
अंकित कर गया
बस यही प्रणाम
कर रहा हूँ उसे।

हाल ही में लोकार्पित डा0 मेहता की पुस्‍तक 'मायड़' से साभार


सोमवार, 21 जनवरी 2013

वेद प्रकाश 'परकाश', कोटा

एक तेरा इशारा नहीं है
वर्ना क्‍या कुछ हमारा नहीं है
उसके हम वो हमारा नहीं है
यह वतन जिसको प्‍यारा नहीं है।
ऐ ख़ुदा तू है उसका सहारा
जिसका कोई सहारा नहीं है।
तेरी रहमत से मायूस होकर
एक लम्‍हा गुज़ारा नहीं है।
आसमाने मोहब्‍बत से कबसे
चाँद के पास तारा नहीं है।
जानलेवा है दर्दे जुदाई
हिज्र का और यारा नहीं है
फूल हैं हम सभी इस चमन के
यह हमारा तुम्‍हारा नहीं है।
ऐ सितमगर सिवा तेरे कोई
मैंने दिल में उतारा नहीं है।
हो कलंदर के या हो सिकंदर
मौत से कौन हारा नहीं है।
और सब कुछ है मंज़ूर 'परकाश'
तुमसे दूरी गवारा नहीं है।।

हाल ही में लोकार्पित हुई उनकी पुस्‍तक 'एक तेरा इशारा नहीं है' से साभार।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

डा0 रघुनाथ मिश्र, कोटा


बनना व बनाना ,कोई आसान नहीं है.
अंदर से दे आनन्दवो सामान नहीं है.
अख़लाक़ की कमी न हो, ये बात जरूरी,
सच्चाई बयानी , कोई अपमान नहीं है.
सारी उमर में आज तलक, होश ही नहीं,
समझ न पायें लोग, वो व्याख्यान नहीं है.
औरों के लिये जिया जो, नादान नहीं है.
जिसमें मदद नहीं, किसी लाचार के लिये,
सचमुच ही मुक़म्मल, वो खानदान नहीं है.
बैठे-बिठाए भेजे, जरूरत की सभी चीज़,
इस जग में इस तरह का, आसमान नहीं है.
कठिनाइयों से जूझ कर फ़ौलाद बनेंगे,
रोना किसी मसले का समाधान नहीं है.

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

ज़मीर दरवेश, मुरादाबाद (उ0प्र0)


हऱ शख्‍़स के चेहरे का भरम खोल रहा है
कम्‍बख्‍़त यह आईना है सच बोल रहा है
खुशबू है कि आँधी है यह मालूम तो कर ले
आहट पे ही दरवाज़े को क्‍यूँ खोल रहा है
तू बोल रहा है किसी मज़लूम के हक़ में
इतनी दबी आवाज़ में क्‍यों बोल रहा है
पैरों को ज़मीं जिसके नहीं छोड़ती वो भी
पर अपने उड़ाने के लिए तोल रहा है
पहले उसे ईमान कहा करते थे शायद
अब आदमी सिक्‍कों में जिसे तोल रहा है

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार  

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

डा0 ओम प्रकाश 'दोस्‍त', कोटा


बारहा बस दिल को अपने ख्‍़वाब दिखलाता हूँ मैं
इस बहाने दोस्‍तो कुछ देर मुस्‍काता हूँ मैं
दूसरों के सामने कहता हूँ खु़द को बादशाह
आईने के रू-ब-रू कहने में शर्माता हूँ मैं
रोज़ कितने लोग मरते देखता हूँ मैं यहाँ
ख़ुद नहीं मर पाउँगा ये सोच इतराता हूँ मैं
कहने को तो हैं बहुत मेरे करमफ़र्मा यहाँ
वक्‍़त पड़ने पर सदा तनहा नज़र आता हूँ मैं
ज़ाहिरा करता हूँ बातें तीर की तलवार की
दर हक़ीक़त मारने-मरने से घबराता हूँ मैं
ये जहाँ फ़ानी है इस की हर अदा नापाएदार
ख़ुद नहीं मानूँ अगर औरों को समझाता हूँ मैं
क़ायदे की बात से बाक़ायदा वाक़िफ़ हूँ पर
क़ायदे की बात ही करने से कतराता हूँ मैं
भूल जाता हूँ सुनाना दास्‍ताने-दर्दो-ग़म
जब कभी ऐ ‘दोस्‍त’ तुझ को सामने पाता हूँ मैं

दृष्टिकोण 8-9 ग़ज़ल विशेषांक से साभार  

बुधवार, 21 नवंबर 2012

रमेश चंद गोयल 'प्रसून', गाज़ियाबाद


पेड़ ने खाये थे पत्‍थर पेड़ के फल आपने

फि‍र इसी को सिर्फ़ क़िस्‍मत थी कहा कल आपने

साथियों का साथ था तो साथियों को छोड़कर

पाँव पीछे कर लिये क्‍यों देख दलदल आपने

झांकिये भीतर कोई आवाज़ देकर कह रहा

क्‍यों किया है, क्‍यों किया यह क्‍यों किया छल आपने

हाथ ही केवल नहीं मुँह तक भी काला हो गया

कोठरी में जो छुआ भूले से काजल आपने

सोच का घर बन्‍द है खिड़की व दरवाज़ा नहीं

आँख पर मुँह पर जड़ी ऊपर से साँकल आपने

आग फैली शहर में उसको बुझाने के लिए

बाँट दी चिनगारियाँ यह क्‍या किया हल आपने

पुस्‍तक 'इस शहर में' से साभार 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अश्‍वनी कुमार पाठक, सिहोरा (जबलपुर)


हिन्‍दू कौन, मुस्‍लमाँ कौन्‍ा, एक ख़ुदा के बन्‍दे हैं
ज़हर भेद का बोते जो इंसाँ नहीं दरिन्‍दे हैं
कोयल, कौए, बगुले, हंस किसी जाति के कोई रंग
मुक्‍त गगन के आँगन में उड़ते सभी परिन्‍दे हैं
सब इक माटी के पुतले राम, रहीमा, अल्‍लाबख्‍श
खूँ का, दिल का रिश्‍ता, एक बाकी गोरख धन्‍धे हैं
गीता, बाइबल या कि कुरान, किसी धर्म के पोथे हों
प्रेम, अहिंसा, करुणा के ही सिद्धान्‍त चुनिन्‍दे हैं
मज़हब नहीं सिखाते हैं, बैर, बुराई, लड़ाई जंग
मुट्ठी भर ख़ुदगर्ज़ों ने रचे घिनौने फन्‍दे हैं।। 

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

भगवत सिंह जादौन 'मयंक', कोटा


जब जीवन उपहार मिले
सबको उसका प्‍यार मिले
सद्गुण मय होवे ये जग, 
क्‍यों कोई बदकार मिले।
मानव सेवा के हित को, 
जन्‍म मुझे हर बार मिले।
ग़ैर मुजस्‍सम फि‍र ढूँढूँ, 
पहले तो साकार मिले।
तकवा तो धरती पर हो, 
न घृणित कोई व्‍यापार मिले।
मिलना तो आखिर है मिलना, 
आर मिले या पार मिले।
ठहरे दरिया से बेहतर, 
कोई तो मझदार मिले।
सुखमय हो दुनिया सारी,
दु:ख क्‍यों घरबार मिले।।

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक)