रविवार, 31 मार्च 2013

संदीप सृजन फाफरिया, उज्‍जैन (म0प्र0)

जब भी मिलता है बड़े प्‍यार से मिलता है
एक वो ही है जो अधिकार से मिलता है

जीत के बाद सब कुछ भुला देते हैं लोग
सोचने का अवसर तो हार से मिलता है

खरा इतना है, उसकी जुबान का अंदाज़
चाकू, कैंची और तलवार से मिलता है

अनुभवों का ख़ज़ाना ज़िन्‍दगी की नाव को
किनारों नहीं मझधार से मिलता है

हाल-चाल जानने को आसपास *सृजन* 
बशर-बशर से नहीं अखबार से मिलता है

*शब्‍द प्रवाह* वार्षिक काव्‍य विशेषांक जनवरी-मार्च 2012 से साभार 

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'

वक्‍़त का तगादा है

बस्‍ति‍याँ रोशन करने का वादा है।
अँधेरों से दोस्‍ती करने का इरादा है।
मुद्दतों से काबि‍ज़ हैं दि‍न रात की दूरि‍याँ,
दूर करने को उफ़ुक भी आमादा है।
ऐसे सहरा हैं जहाँ रात को उगता है सूरज,
वहाँ ना कोई बस्‍ती है ना नर ना कोई मादा है।
फ़लक़ पे सि‍तारों का कारवाँ हो तो हो,
जमीं को तो आफ़ताब भी ज़ि‍यादा है।
उसके यहाँ देर सही मगर अंधेर नहीं,
वहाँ न कोई कमज़ोर है न कोई दादा है।
हक़ अदा कर मत उँगली उठा कि‍सी पर,  
शतरंज की बि‍सात का तू इक पि‍यादा है,
हाथ थाम मौक़ा मि‍ले न मि‍ले फि‍र ‘आकुल’,
दोस्‍ती कर यह वक्‍़त का तगादा है।

शनिवार, 26 जनवरी 2013

डा0 नलिन, कोटा

डा0 नलिन की पुस्‍तक 'चाँद निकलता होगा' हाल ही में प्रकाशित उनका ग़ज़ल संग्रह है। इसका रसास्‍वादन करें। ई-पुस्‍तक के रूप में आपके लिए प्रस्‍तुत है, उनकी पुस्‍तक। उनकी एक प्रतिनिधि ग़ज़ल आपकी नज़र है

पटरी पर पहियों के चलते
जैसे चाहो शब्‍द निकलते।
डा0 नलिन गोष्‍ठी में काव्‍य पाठ करते हुए
मानो तो संगीत बसा है
और न मानो तो सुर खलते।
धरती की यदि तपन देख ली
पाँव रहेंगे प्रतिपल जलते।
निगले कैसे कैसे विष हैं
जिनको बनता नहीं उगलते।
पाँवों तले न जाने क्‍या था
पल पल जिस पर रहे फि‍सलते
आ ही जाती है सुध-बुध भी
जीवन की संध्‍या के ढलते।
सब भटके हैं दौड़ भाग कर
बढ़ते जाते 'नलिन' टहलते।।

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

डा0 अशोक मेहता, कोटा

माँ

जीवन की प्रथम ध्‍वनि
प्रथम शब्‍द
पहला अहसास
उस व्‍यक्त्वि के लिए, जिसने
जन्‍म दिया
पाला-पोसा
समझाया
सुरक्षा दी
मैं जन्‍म से,
जिसका अहसानमंद हूँ

माँ
एक मधुर स्‍मृति
मन की गहराई में
प्रज्‍ज्‍वलित
एक दीया

माँ
ममता का
आदमकद शीशा, जिसमें
परिलक्षित
नभांतरित प्‍यार

माँ
मन में कुछ उमड़ा
और कागज़ को
अंकित कर गया
बस यही प्रणाम
कर रहा हूँ उसे।

हाल ही में लोकार्पित डा0 मेहता की पुस्‍तक 'मायड़' से साभार


सोमवार, 21 जनवरी 2013

वेद प्रकाश 'परकाश', कोटा

एक तेरा इशारा नहीं है
वर्ना क्‍या कुछ हमारा नहीं है
उसके हम वो हमारा नहीं है
यह वतन जिसको प्‍यारा नहीं है।
ऐ ख़ुदा तू है उसका सहारा
जिसका कोई सहारा नहीं है।
तेरी रहमत से मायूस होकर
एक लम्‍हा गुज़ारा नहीं है।
आसमाने मोहब्‍बत से कबसे
चाँद के पास तारा नहीं है।
जानलेवा है दर्दे जुदाई
हिज्र का और यारा नहीं है
फूल हैं हम सभी इस चमन के
यह हमारा तुम्‍हारा नहीं है।
ऐ सितमगर सिवा तेरे कोई
मैंने दिल में उतारा नहीं है।
हो कलंदर के या हो सिकंदर
मौत से कौन हारा नहीं है।
और सब कुछ है मंज़ूर 'परकाश'
तुमसे दूरी गवारा नहीं है।।

हाल ही में लोकार्पित हुई उनकी पुस्‍तक 'एक तेरा इशारा नहीं है' से साभार।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

डा0 रघुनाथ मिश्र, कोटा


बनना व बनाना ,कोई आसान नहीं है.
अंदर से दे आनन्दवो सामान नहीं है.
अख़लाक़ की कमी न हो, ये बात जरूरी,
सच्चाई बयानी , कोई अपमान नहीं है.
सारी उमर में आज तलक, होश ही नहीं,
समझ न पायें लोग, वो व्याख्यान नहीं है.
औरों के लिये जिया जो, नादान नहीं है.
जिसमें मदद नहीं, किसी लाचार के लिये,
सचमुच ही मुक़म्मल, वो खानदान नहीं है.
बैठे-बिठाए भेजे, जरूरत की सभी चीज़,
इस जग में इस तरह का, आसमान नहीं है.
कठिनाइयों से जूझ कर फ़ौलाद बनेंगे,
रोना किसी मसले का समाधान नहीं है.

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

ज़मीर दरवेश, मुरादाबाद (उ0प्र0)


हऱ शख्‍़स के चेहरे का भरम खोल रहा है
कम्‍बख्‍़त यह आईना है सच बोल रहा है
खुशबू है कि आँधी है यह मालूम तो कर ले
आहट पे ही दरवाज़े को क्‍यूँ खोल रहा है
तू बोल रहा है किसी मज़लूम के हक़ में
इतनी दबी आवाज़ में क्‍यों बोल रहा है
पैरों को ज़मीं जिसके नहीं छोड़ती वो भी
पर अपने उड़ाने के लिए तोल रहा है
पहले उसे ईमान कहा करते थे शायद
अब आदमी सिक्‍कों में जिसे तोल रहा है

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार  

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

डा0 ओम प्रकाश 'दोस्‍त', कोटा


बारहा बस दिल को अपने ख्‍़वाब दिखलाता हूँ मैं
इस बहाने दोस्‍तो कुछ देर मुस्‍काता हूँ मैं
दूसरों के सामने कहता हूँ खु़द को बादशाह
आईने के रू-ब-रू कहने में शर्माता हूँ मैं
रोज़ कितने लोग मरते देखता हूँ मैं यहाँ
ख़ुद नहीं मर पाउँगा ये सोच इतराता हूँ मैं
कहने को तो हैं बहुत मेरे करमफ़र्मा यहाँ
वक्‍़त पड़ने पर सदा तनहा नज़र आता हूँ मैं
ज़ाहिरा करता हूँ बातें तीर की तलवार की
दर हक़ीक़त मारने-मरने से घबराता हूँ मैं
ये जहाँ फ़ानी है इस की हर अदा नापाएदार
ख़ुद नहीं मानूँ अगर औरों को समझाता हूँ मैं
क़ायदे की बात से बाक़ायदा वाक़िफ़ हूँ पर
क़ायदे की बात ही करने से कतराता हूँ मैं
भूल जाता हूँ सुनाना दास्‍ताने-दर्दो-ग़म
जब कभी ऐ ‘दोस्‍त’ तुझ को सामने पाता हूँ मैं

दृष्टिकोण 8-9 ग़ज़ल विशेषांक से साभार  

बुधवार, 21 नवंबर 2012

रमेश चंद गोयल 'प्रसून', गाज़ियाबाद


पेड़ ने खाये थे पत्‍थर पेड़ के फल आपने

फि‍र इसी को सिर्फ़ क़िस्‍मत थी कहा कल आपने

साथियों का साथ था तो साथियों को छोड़कर

पाँव पीछे कर लिये क्‍यों देख दलदल आपने

झांकिये भीतर कोई आवाज़ देकर कह रहा

क्‍यों किया है, क्‍यों किया यह क्‍यों किया छल आपने

हाथ ही केवल नहीं मुँह तक भी काला हो गया

कोठरी में जो छुआ भूले से काजल आपने

सोच का घर बन्‍द है खिड़की व दरवाज़ा नहीं

आँख पर मुँह पर जड़ी ऊपर से साँकल आपने

आग फैली शहर में उसको बुझाने के लिए

बाँट दी चिनगारियाँ यह क्‍या किया हल आपने

पुस्‍तक 'इस शहर में' से साभार 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अश्‍वनी कुमार पाठक, सिहोरा (जबलपुर)


हिन्‍दू कौन, मुस्‍लमाँ कौन्‍ा, एक ख़ुदा के बन्‍दे हैं
ज़हर भेद का बोते जो इंसाँ नहीं दरिन्‍दे हैं
कोयल, कौए, बगुले, हंस किसी जाति के कोई रंग
मुक्‍त गगन के आँगन में उड़ते सभी परिन्‍दे हैं
सब इक माटी के पुतले राम, रहीमा, अल्‍लाबख्‍श
खूँ का, दिल का रिश्‍ता, एक बाकी गोरख धन्‍धे हैं
गीता, बाइबल या कि कुरान, किसी धर्म के पोथे हों
प्रेम, अहिंसा, करुणा के ही सिद्धान्‍त चुनिन्‍दे हैं
मज़हब नहीं सिखाते हैं, बैर, बुराई, लड़ाई जंग
मुट्ठी भर ख़ुदगर्ज़ों ने रचे घिनौने फन्‍दे हैं।। 

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

भगवत सिंह जादौन 'मयंक', कोटा


जब जीवन उपहार मिले
सबको उसका प्‍यार मिले
सद्गुण मय होवे ये जग, 
क्‍यों कोई बदकार मिले।
मानव सेवा के हित को, 
जन्‍म मुझे हर बार मिले।
ग़ैर मुजस्‍सम फि‍र ढूँढूँ, 
पहले तो साकार मिले।
तकवा तो धरती पर हो, 
न घृणित कोई व्‍यापार मिले।
मिलना तो आखिर है मिलना, 
आर मिले या पार मिले।
ठहरे दरिया से बेहतर, 
कोई तो मझदार मिले।
सुखमय हो दुनिया सारी,
दु:ख क्‍यों घरबार मिले।।

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक)

सोमवार, 12 नवंबर 2012

उदयकरण 'सुमन', रायसिंह नगर (श्रीगंगानगर)

धर्म मोक्ष का धाम है ज़िन्‍दगी
अर्थ काम का मुक़ाम है ज़िन्‍दगी
भरत के लिए चरण पादुका है
लो लछमन को राम है ज़िन्‍दगी
मीरा को गिरधर गोपाल सी
संतो को राम नाम है ज़िन्‍दगी
साधक को वेदमंत्र साधना है
विषयी को गोरा चाम है ज़िन्‍दगी
सरफरोश शहीदों की नज़र में
शहादत का नाम है ज़िन्‍दगी
रिन्‍दों का साक़ी मयकदा है
सागरो मीना जाम है ज़िन्‍दगी
प्रतिम लेखनी है सृजन की
सतत गति का नाम है ज़िन्‍दगी

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल संग्रह) से साभार 

रविवार, 11 नवंबर 2012

बुनियाद हुसैन ‘ज़हीन’, बीकानेर


आदमी कब किसी से डरता है
ये तो बस जिन्‍दगी से डरता है
क़हर ढाएगी जाने क्‍या मुझ पर
दिल तेरी खामुशी से डरता है
मुर्दादिल को ये कोन समझाए
ज़ुल्‍म, ज़िन्‍दादिली से डरता है
डर ख़ुदा का न हो अगर दिल में
आदमी आदमी से डरता है
ज़ख्‍म जिसने कभी दिये थे ‘ज़हीन’
आज तक दिल उसी से डरता है।

ग़ज़ल संग्रह ‘एहसास के रंग’ व दृष्टिकोण से साभार 

शनिवार, 10 नवंबर 2012

विपिन मणि कौशिक, कोटा



तूफ़ाँ से टकराये कौन, नैया पार लगाये कौन?
जलती हुई मशालें थामे, तम को दूर भगाये कौन?
जो संघर्षों में घायल है, उनको हक़ दिलवाये कौन?
खून पसीना बहे किसी का, बैठ मज़े से खाये कौन?
सारे दर्पण धुँधलाये हैं, चेहरा साफ़ दिखाये कौन?
जाने किसने क़त्‍ल किया है, जाने पकड़ा जाये कौन?
जो गुण्‍डे को गुण्‍डा कहता, उसके प्राण बचाये कौन?
झौंपड़ियों की पीड़ाओं को राजभवन पहुँचाये कौन?
सर ढकने की जगह न खु़द को, अपने घर में आए कौन?
किसने वीराँ किया ‘विपिन’ को, दुनिया को समझाये कौन?

पुस्‍तक 'मैं समय हूँ' से साभार

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

बशीर अहमद 'मयूख', कोटा


ये सच न हो तो ऐ मुंसिफ़ो, तुम क़लम हमारी जबान कर दो
ये रहबरों की ही साज़िशें हैं, जो लुट रहे कारवाँ सफ़र में।
मनीषियों, पढ़ के याद कर लो, लिखी है दीवार पर इबारत
चराग़ जो भी जलाये हमने, अगिन लगी है उन्‍हीं से घर में
ये धर्मग्रन्‍थों ने हम से बोला- करो मुहब्‍बत ख़ुदा के बन्‍दो
नज़र ये ऐसी लगी है किसकी, भरी जो नफ़रत नज़र-नज़र में
पुजारियो जा के देख आओ, कहीं तुम्‍हारा खु़दा न हो ये
पड़ी हुई है न जाने कब से, सड़ी हुई लाश मुर्दा घर में
धुआँ धुआँ आदमी हुआ है, तपिश से तहज़ीब जल रही है
कहाँ गई वो हवाऍं ठण्‍डी, कभी मिली थी जा रहगुज़र में
गुफ़ा से चलकर, गगन को छूकर, ये कौन से युग में आ गये हम
हवा में बारूद-गंध फैली, भरा हुआ खून हर डगर में
सदी की हर त्रासदी को झेला, हमारी हिम्‍मत की दाद तो दो
हामरे संकल्‍प-सूर्य ने हर निशा को, बदला है फि‍र सहर में
जो तिश्‍ना होठों की प्‍यास छू ले, मोहब्‍बतों का उजास बाँटे
ग़ज़ल तो आख़िर ग़ज़ल है यारो, ग़ज़ल कहो तुम किसी बहर में
हमारे जाने के बाद यारो, ज़माना पूछेगा तुम से आकर
वो एक शायर कहाँ गया है, कभी जो रहता था इस शहर में
जहाँ भी देखो वहीं मिलेगा, मेरे सनम का स्‍वरूप ऐसा
अनेक रस्‍ते-अभेद मंज़िल, झुकाओ सर को किसी भी दर में
दिशा-दिशा ने जिसे दुलारा, किरण ने उपनाम दे पुकारा
वहीं बिचारा ‘मयूख’ गुमनाम, हो गया अपने ही शहर में
दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार


गुरुवार, 8 नवंबर 2012

बाबा कानपुरी, नोएडा


पग–पग पर मक्‍कारी क्‍यों?
अपनों से गद्दारी क्‍यों?
नन्‍हें मुन्‍ने बच्‍चों की
पीठ पे बस्‍ता भारी क्‍यों?
कीमत है जब एक समान
बर्तन हल्‍के-भारी क्‍यों?
अय्‍यारों की बस्‍ती में
फि‍रते यहाँ मदारी क्‍यों?
घर में ग़म की दौलत हे
इस पर हरेदारी क्‍यों?
नंगों की इस बस्‍ती में
आया यहाँ भिखारी क्‍यों?
पढ़े लिखों की महफि‍ल है
बातें फि‍र बाज़ारी क्‍यों?
बात करो सबकी ‘बाबा’
इतनी भी खुद्दारी क्‍यों?

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

बुधवार, 7 नवंबर 2012

अमीन 'असर', कोटा

आँखों से अश्‍कों की बरसात चलो यूँ कर लें
अब के सावन से मुलाक़ात यूँ कर लें
आज गुजरे हुए लम्‍हों में चलो खो जाये
वरना गुजरेगी नहीं रात चलों यूँ कर लें
शेर लिखता हूँ ख़यालों में चले आओ तुम
आज कागज़ पे मुलाक़ात चलो यूँ कर लें
काटे कटता नहीं इक पल भी श्‍बे फुरक़त का
उनसे कहिएगा ये हालात चलो यूँ कर लें
मैंने ग़ज़लों में ‘असर’ उनकी ही अक्‍़कासी की
उनसे कह दें दिली जज्‍़बात चलों यूँ कर लें।।

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार  

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

किरन राजपुरोहित 'नितिला', जोधपुर

फि‍सलने का डर चलने नहीं देता
गिरने का डर सँभलने नहीं देता
दंगे, बन्‍दूकों की दहशत, बारिश में
बच्‍चे को अब मचलने नहीं देता
सफेद लिबास, उदास सूचनी आँखें
आईना उसे अब सँवरने नहीं देता
पीगें, उमंगें मन में बहुत उठती पर
खूँटा उसको अब उछलने नहीं देता
हाथ बढ़ाती हैं खुशियाँ अक्‍सर
समाज का डर सँभलने नहीं देता।।

दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेशांक) से साभार

रविवार, 4 नवंबर 2012

गिरीश कांत सक्‍सैना 'दिवाकर', नई दिल्‍ली

घना कोहरा उमस अमावस की काली घटाएँ
एक उजली सी किरण को तरस गया है आदमी
चारों और खून ही खून, शोर शराबा है
ज़िन्‍दगी की आस को तड़प गया है आदमी
हर देहरी, खिड़की चौखट दुबक रो रही
भेड़ियों की भीड़ में भटक गया है आदमी
भाषा जाति धर्मों का, ऐसा ज़लज़ला उठा
अब अपनी ही नज़र में गिर गया है आदमी
चील गिद्ध बाज़ आज़ादी के गीत गा रहे
एक मीठी सी तान को तरस गया है आदमी

दृष्टिकोण-8-9  (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार

शनिवार, 3 नवंबर 2012

मोहन भारतीय, भिलाई

माँ तो बस होती है माँ।।
शब्‍दातीत अनूप अनुपम, अतुलनीय होती है माँ
भिनसारे उठ चूल्‍हा चक्‍की, सारे दिन खटती रहती
पत्‍नी बहिन सुता माँ बनकर, खण्‍ड खण्‍ड बँटती रहती
देर रात तक जगती रहती, जाने कब सोती है माँ।।
घर भर की सुख सुविधाओं की, माला रोज पिरोती है
तुलसीजी पर माथ नवाकर, माँगे रोज मनौती है
आशीषों की फसल उगाती,सुख सपने बोती है माँ।।
धरती जैसी सहनशीलता, आसमान सा हृदय उदार
सागर सी ममता लहराती, जिसके मन मे अपरम्‍पाऱ
किसी प्रार्थना के मंगलमय, भावों की होती है माँ।।
दीवाली के खील बताशे, होली गुझियाओं में
ईद मुबारक की खुशियों में, क्रिसमस की दुआओं में
मंगलमयी कामनाओं सी, वरदहस्‍त हाती है माँ।।
रामायण चौपाई जैसी, गीता के उपदेशों सी
मस्जिद की आजानों जैसी, बाइबिल के अनुदेशों सी
तीरथ जैसी वन्‍दनीय और पूजनीय होती है माँ।।

दृष्टिकोण से साभार