गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

गिरीश कुमार श्रीवास्‍तव, जौनपुर (उ0प्र0)

1
कभी गैरों के सिर का बोझ अपने सिर उठाया क्‍या?
तुम्‍हारी जिन्‍दगी का पल किसी के काम आया क्‍या?
अँधेरे खुद दीये की राह में आने से डरते हैं,
अँधेरे से डर कर कभी दीये ने सर उठाया क्‍या?
2
उतर न जाये गर दिल में मधुर गीत नहीं।
छू न ले दिल को जो संगीत वो संगीत नहीं।
गम हो या हो खुशी जो साये की तरह साथ रहे
धड़कनों से है जुदा गर तो कोई मीत नहीं
3
फूल काँटों में है पला सीखो
जिन्‍दगी जीने की कला सीखो
व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ से ऊपर उठ कर
कैसे दुनिया का हो भला सीखो
4
तकाज़ा वक्‍़त का ठहरा नहीं है।
समंदर दिल से तो गहरा नहीं है।
तलाशोगे तो पाओगे नज़र में,
मोहब्‍बत का कोई चेहरा नहीं है
5
मधुर रस गंध से भीगा हुआ पल याद आता है
न जाने क्‍यूँ बीता हुआ कल याद आता है
कभी छू कर नहीं गुजरी तपिश  सर को मेरे भाई
मुझको ममतामयी माँ का वो आँचल याद आता है
6
किसी परिंदे को पाखों से जुदा मत करना
तोड़ कर फूलों को शाखों से जुदा मत करना।
मेरे मेहबूब बस इतनी सी तमन्‍ना है मेरी
छीन कर ख्‍वाबों को आँखों से जुदा मत करना

दृष्टिकोण-7 से साभार

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

डा0 ललित फरक्‍या 'पार्थ', मन्‍दसौर (म0प्र0)

नव निर्माण की चुनौती
कायाकल्‍प की आशा
विकास की सोच
साकार होगी नि:स्‍वार्थता से
समाज सुधार की धारणा
जीवन मूल्‍यों की रक्षा
राष्‍ट्र की प्रगति
सम्‍भव होगी एकता से।
मातृभूमि की अस्मिता
मान मूल्‍यों की उत्‍कृष्‍टता
समरसता की अवधारणा
अक्षुण्‍ण रहेगी समानता से।
बौद्धिक शक्ति की लब्‍धता
विकास क्षेत्र की प्रवीणता
संस्‍कृति की अटूटता
सुरक्षित रहेगी समर्पण से।
सर्वधर्म समभाव से अनुप्राणित
स्‍वस्‍फूर्त ऊर्जा से अनुशासित
दायित्‍व-बोध से सुस्‍थापित
इस राष्‍ट्र की सशक्‍तता हो
सदा अबाधित।।

दृष्टिकोण-7 से साभार  

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

राजेन्‍द्र तिवारी, झालावाड़

वो समंदर पा कर भी प्‍यासा लगा
दुनिया से बड़ा ही रुआँसा लगा।
मुद्दतों में जिस शोहरत को हासिल किया
वक्‍त खोने में उसको जरा सा लगा।
मौसम सा आलम बदलता गया
दरमियाँ दिलों के कुहासा लगा।
मुसीबत में वो गुदगुदा के गया
आदमी सीरत में खुदा सा लगा।
अपनों ज़ख्‍मों के तोहफ़े दिये
बेगानों से मिलके मज़ा सा लगा।
सज़दे में उसके थी नूरानियाँ
दुआओं में असर भी खुदा सा लगा।
गर्दिशों में जो हमसाया लगा।
खुशियों में मेरी क्‍यूँ खफ़ा सा लगा।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

जगदीश 'व्‍योम', दिल्‍ली

जगदीश 'व्‍योम'
इतने आरोप न थोपो
मन बागी हो जाए
मन बागी हो जाए,
वैरागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो...



यदि बांच सको तो बांचो
मेरे अंतस की पीड़ा
जीवन हो गया तरंग रहित
बस पाषाणी क्रीडा
मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
जब अकुलाती है
शब्दों की लहर लहर लहराकर
तपन बुझाती है
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
आगी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!


खुद खाते हो पर औरों पर
आरोप लगाते हो
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
संग बिक जाते हो
आरोपों की जीवन में जब-जब
हद हो जाती है
परिचय की गांठ पिघलकर
आंसू बन जाती है
नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
बैरागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!

कविताकोश से साभार

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

दिनेश त्रिपाठी 'शम्‍स' घुघुलपुर, बलरामपुर, उ0प्र0

दिनेश त्रिपाठी 'शम्‍स'
दरपन को झुठलाने बैठे हैं ,
कितने लोग सयाने बैठे हैं .
नये समय की ठोकर से मत डर ,
अभी तो लोग पुराने बैठे हैं .
उधर जल रही है सारी बस्ती ,
इधर आप यूं गाने बैठे हैं .
फूलों के साहस को करो नमन ,
पत्थर को पिघलाने बैठे हैं .
खुद से तो अनजान रहे लेकिन ,
औरों को पहचाने बैठे हैं .
सब डूबे हैं अपनी मस्ती में ,
सबके सब दीवाने बैठे हैं .
‘शम्स’ नज़र का धोखा भर है या ,
वो ही कुछ बेगाने बैठे हैं .


कविता कोश से साभार

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

अटल बिहारी वाजपेयी


अटल बिहारी वाजपेयी
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

कविताकोश से साभार

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

जितेन्‍द्र जौहर

मुक्‍तक

1-
फ़क़त ये फूस वाला आशियाना ही बहुत मुझको
बदन पर एक कपड़ा ये पुराना ही बहुत मुझको
मुबारक हो तुम्‍हें झूमर लगी ये चाँदनी 'जौहर',
दरख्‍़तों का सुहाना शामियाना ही बहुत मुझको
2-
किसी दरवेश के किरदार-सा जीवन जिया होता
हृदय के सिंधु का अनमोल अमरित भी पिया होता
नहीं होता तृषातुर मन, हिरन-सा रेत में व्‍याकुल,
अगर अन्‍त:करण का आपने मंथन किया होता
3-
मुक़द्दर आज़माने से, किसी को कुछ नहीं मिलता
फ़कत आँसू बहाने से, किसी को कुछ नही मिलता
हरिक नेमत उसे मिलती, पसीना जो बहाता है,
कि श्रम से जी चुराने से किसी को कुछ नहीं मिलता

शब्‍द प्रवाह मुक्‍तक विशेषांक से साभार

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

तूलिका शर्मा

मैं स्‍त्री
एक किताब सी
जिसके सारे पन्‍ने कोरे है
कोरे इसलिए
क्‍योंकि पढ़े नहीं गये
वो नज़र नहीं मिली
जो हृदय से पढ़ सके
बहुत से शब्‍द रखे हैं उसमें
अनुच्‍चारित
तूलिका शर्मा
भावों से उफनती सी
लेकिन अबूझ
बातों सें लबरेज़
मगर अनसुनी
किसी महाकाव्‍य सी फैली
पर सर्गबद्ध 
धर्मग्रंथ सी पावन
किन्‍तु अनछुई
 तुम नहीं पढ़ सकते उसे
बाँच नहीं सकते उसके पन्‍ने
क्‍योंकि तुम वहीं पढ़ सकते हो
जितना तुम जानते हो
और तुम नहीं जानते 
कि कैसे पढ़ा जाता है
सरलता से दुरूहता को
कि कैसे किया जाता है
अलौकिक का अनुभव
इस लोक में भी

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

राकेश खण्‍डेलवाल

सीपियों में मोतियों की लग गई लड़िया सँवरने
वाटिकाओं में कपोलों की लगे फि‍र फूल खिलने
कोर आकर अधर के रुक गया कोई सितारा

धुल गये पल सब अनिश्‍चय के हृदय से
खोल परदा रश्मियाँ फि‍र मुस्‍काराई
बन्दिनी थी भावना मन के विवर मे
ज्‍योत्‍सना को ओढ़ फि‍र से जगमगाई
राकेश खण्‍डेलवाल
रंग उजड़े रंग में फि‍र से भरे नव
फाग छेड़े कुछ नये पुरवाइयों ने
एक बादल को लिया भुजपाश में भर
कसमसाकर थक रही अँगड़ाइयों ने
स्‍वप्‍न ने शृंगार कर निज को सँवारा
वेदना ने स्‍पर्श जब पाया तुम्‍हारा।।

रात की सूनी पड़ी पगडंडियों पर
पालकी आई उतर निशिगंध वाली
वेणियों के पुष्‍प्‍गुच्‍छों से इतर ले
माँग अपनी नव उमंगों से सजा ली
लग पड़ी बुनने छिटकती रश्मियों से
भोर के पथ में बिछाने को गलीचे
नीर ले सौगंध के आभास वाला
क्‍यारियों में फि‍र नये विश्‍वास सींचे।
नोन राई ले कलुष सारा उतारा।
वेदना ने स्‍पर्श जब पाया तुम्‍हारा।

कुछ नये अध्‍याय खोले रागिनी ने

पीर की सारंगियों की धुन बदलकर
चढ़गई मुंडेर अभिलाषायें नूतन
कामना की सीढ़ियों पर पाँव धर कर
तोड़ कर तटबंध सारे संयमों के
जाह्नवी निर्बाध उमड़ी भावना की
जिन्‍दगी के तप्‍त मरुथल में लगा यों
आ गई घिर कर घटायें साधना की
ढल गया सारा सुधा में अश्रु खारा
वेदना ने स्‍पर्श जब पाया तुम्‍हारा।।

श्री राकेशजी के ब्‍लॉग गीतकार की कलम से साभार

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

राजेश गोयल

हर गीत निखर जाये मेरा, तुम आओ जब मेरे द्वारे।

मैं पलक पावणे बैठा था
मेरा अपना भी कोई आएगा
ऐसा ही मैं भी गीत कोई लिखूँ
पत्‍थर मूरत हो जायेगा
यह गीत सिंधु सा हो जाये, तुम आओ जब मेरे द्वारे।

गंगा की पावन धारा तुम, आओ अब मेरे द्वारे।
तू तुलसी की रामायण, मैं प्रेमचंद की रंगशाला
तू गालिब की गजल बने
बच्‍चन की मैं भी मधुशाला
गीतों को सरगम मिल जाये, तुम आओ जब मेरे द्वारे

तुम वृहद कोष हो शब्‍दों का
मैं एक शब्‍द हो गया।
अब तन मेरा मथुरा का यौवन
मन वृन्‍दावन हो गया।
हर गीत ही गीता हो जाये, तुम आओ जब मेरे द्वारे

काव्‍याकाश से साभार

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

अरुण सेदवाल, कोटा


मेरी आवारगी बदनाम क्‍यूँ है?
मेरी शाइस्‍तगी गुमनाम क्‍यूँ है?
मैंने कल रात ही तौबा करी थी,
मेरे हाथों में फि‍र से ज़ाम क्‍यूँ है?
रात तो रात है, होती ही है,
सुबह होते भी लगती शाम क्‍यूँ है?
कभी देखी नहीं बदनाम गलियाँ,
मेरी नीयत पे फि‍र इल्‍ज़ाम क्‍यूँ है?
बुलाया उसने मुझ को आज फि‍र से,
भला मुझसे भी कोई काम क्‍यूँ है?
कोई बतलाए मुझको राज़ इसका,
मेरा क़ातिल मेरा हमनाम क्‍यूँ है?

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

गांगेय कमल, कनखल (उत्‍तराखंड)

दिवस में काली घटा हो, रातें तमस से गहराई
और बीहड़ पथ में तेरे, देता न हो सुझाई
आँधी के डर से फि‍र
दिया जलाना कब मना है।
मुस्‍कराना कब मना है।।

हो शूल बिखरे राह में, साथ न तेरे हो कोई
तेरी आकुलता से भरी, हो चाहे आँखें रोई
किसी की चाह में फि‍र भी,
गीत गाना कब मना है।
मुस्‍कराना कब मना है।।

थक गया हो हार कर तू, पैर में पड़ी हो बिवाई
जीवन संघर्ष में निश्चित्, पराजय ही तूने पाई
अपनी पराजय से फि‍र भी
उबर आना कब मना है।
मुस्‍कराना कब मना है।।

क्षितिज पर ढलते रवि की, हमने देखी अरुणाई
नयनों में भी लालिमा है, साँझ अब जीवन में आई
बेला विदा की है फि‍र भी,
गुनगुनाना कब मना है।
मुस्‍कराना कब मना है।।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

विभोर गुप्‍ता

ना चहिये मुझे सूचना का अधिकार,
ना ही चहिये मुझे शिक्षा का अधिकार
गर कर सकते हो मुझ पर कोई उपकार

क्या करूँगा मैं अपने बच्चों को
स्कूलों में भेजकर
जबकि मैं खाना भी
नही खिला सकता उन्हें पेटभर
भूखा बचपन सारी रात,
चाँद को है निहारता 
पढ़ेगा वो क्या खाक,
जिसे भूखा पेट ही है मारता

और अगर वो लिख-पढ़ भी लिए,
तो क्या मिल पायेगा उन्हें रोजगार
नही थाम सकते ये बेरोजगारी तो
दे दो मुझे आत्महत्या का अधिकार

मेरे लिए, सैकड़ो योजनाये
चली हुई है, सरकार की
सस्ता राशन, पक्का मकान,
सौ दिन के रोजगार की
पर क्या वास्तव में
मिलता है मुझे इन सब का लाभ
या यूँ ही कर देते हो तुम,
करोड़ो-अरबो रुपये ख़राब

अगर राजशाही से नौकरशाही तक,
नही रोक सकते हो यह भ्रष्टाचार,
तो उठाओ कलम, लिखो कानून,
और दे दो मुझे आत्महत्या का अधिकार.

कभी मौसम की मार,
तो कभी बीमारी से मरता हूँ
कभी साहूकार, लेनदार का
क़र्ज़ चुकाने से डरता हूँ
दावा करते हो तुम कि
सरकार हम गरीबों के साथ है
अरे सच तो ये है,
हमारी दुर्दशा में तुम्हारा ही हाथ है 

मत झुठलाओ इस बात से,
ना ही करो इस सच से इंकार 
नहीं लड़ सकता और जिन्दगी से,
दे दो मुझे आत्महत्या का अधिकार

मैं अकेला नही हूँ,
जो मांगता हूँ ये अधिकार,
साथ है मेरे, गरीब मजदूर,
किसान और दस्तकार
और वो, जो हमारे खिलाफ
आवाज उठाते है
खात्मा करने को हमारा,
कोशिशें लाख लगाते है

पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक,
मचा है हाहाकार
खत्म कर दो किस्सा हमारा,
दे दो मुझे आत्महत्या का अधिकार
क्यों कर रहे हो इतना सोच विचार
जब चारो और है बस यही गुहार
खुद होंगे अपनी मौत के जिम्मेदार
अब तो दे ही दो, आत्महत्या का अधिकार.

काव्‍याकाश से साभार

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

विजेन्‍द्र जैन, कोटा

कुछ बच्‍चे
जिनके कंधों पर होने चाहिए थे बस्‍ते
उनके कंधे पर देखता हूँ
लटके हुए मोमजामे के थैले और
सड़क पर बिखरी हुई
प्‍लास्टिक की थैलियों को
समेटते हुए वे छोटे छोटे हाथ
सुनता हूँ उनके अबोध
हँसते मस्‍ती में गाते फि‍ल्‍मी गीत
काश !
पैबंद का दर्द जान पाते
किन्‍तु वे उसमें जींस का आनंद लेते
बेखौफ बचपन का मजाक उड़ाते
पूछना चाहता हूँ उन्‍हें रोक कर,
पर फि‍ल्‍मों से चुराया एक शबद बोलते हैं-
सॉरी ! हमें जल्‍दी है
कल नये साल की
खुशियाँ मनाई थीं न
शहर में बहुत कचरा फैला हुआ है
समेटना है, कमाई करनी है
आज खूब माल मिलेगा
और फि‍र मनायेंगे
हम भी नया साल!!

'कचरे का ड्रम'- से

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

अहमद सिराज फ़ारूक़ी, कोटा

बढ़ी है मुल्‍क में दौलत तो मुफ़लिसी क्‍यों है?
हमारे घर में हर इक चीज़ की कमी क्‍यों है?
मिला कहीं जो समंदर तो उससे पूछूँगा,
मेरे नसीब में आखिर ये तश्‍नगी क्‍यों है?
इसीलिए तो ख़फ़ा है ये चाँद जुगनू से,
कि इसके हिस्‍से में आखिर ये रोशनी क्‍यों है?
ये एक रात क्‍या हो गया है बस्‍ती को?
कोई बताये यहाँ इतनी ख़ामुशी क्‍यों है?
किसी को इतनी फुरसत नहीं कि देख तो ले,
ये लाश किसकी है, कल से यहीं पड़ी क्‍यों है?
जला के ख़ुद को जो देता है रोशनी सबको,
उसी चराग़ की किस्‍मत में तीरगी क्‍यों है?
हर एक राह यही पूछती है हमसे ‘सिराज’,
सफ़र की धूल मुकद्दर में आज भी क्‍यों है?