शनिवार, 29 सितंबर 2012

बृजेंद्र सिंह झाला 'पुखराज'

बायें श्री पुखराज
जग जननी जय शारदे, हमें दु:खों से तार दे।
हे, हंसवाहिनी अम्बिके, हमें लगा माँ पार दे।

श्‍वेतपद्मासना वीणापाणि, हे श्‍वेत अम्‍बर धारिणी।
सुबुद्धि दे हे विद्यादायिनी, हे भावपुष्‍प प्रवाहिनी।

ममता मयी सुरसरिता तेरे, नतमस्‍तक सब भक्‍त हैं।
वेदव्‍यास, वाल्‍मीकि, तुलसी, भारवि सिद्धहस्‍त हैं।

हरिऔध, जयशंकर प्रसाद, सुधीन्‍द्र जैसे दीप हैं।
      तेरी कृपा के जलनिधि के, ये चमकते सीप है।

  वरदहस्‍त जिस पर तेरा, वंश वहीं खुशहाल है।
   चमत्‍कार हो तेरी दया का, मूक भी वाचाल है।

जन्‍मांध को भी मिले गये माँ ज्ञान रूपी नैन हैं।
युगदृष्‍टा कभी सूरदास थे, अब रवींद्र जैन हैं।

कला जगत् के सभी बने एक अनूठी मिसाल हैं।
तू ने दिये लाड़ले माँ ये, माँ-भारती के भाल हैं।

तपे अधिक जितना सोना, वो उतना निखार पाता है।
जितना करे तप साधना,वो उतना शिखर पाता है।

चाहिए आशीष तेरी शरण में हैं माँ हमें।
'पुखराज’ तेरी चरण रज, मस्‍तक चढ़ा कर नित  नमें।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

रघुराज सिंह हाड़ा

तुम क्‍या सोच रहे हो, मैं हुंकारें भर लूँगा
जो कह दो, लिख दो, उस पर अँगूठा धर दूँगा
लाख गालियाँ दे जग, सच के भक्‍त विभीषण को
रावण‍ के बद से, क्‍यों कर समझौता कर लूँगा


गाली क्‍या निष्‍कासन क्‍या, विस्‍मरणीय उपेक्षायें
सहना सीखा है, सच के पक्ष की आपदायें
नहीं मिलूँगा राजमुकुट से, मेरुदण्‍ड खो कर
वल्‍कलधारी बनवासी की, इष्‍ट मित्रतायें

पुस्‍तक 'जीवन की गूँज' के लोकार्पण के
अवसर पर रघुराज सिंह हाड़ा
अध्‍यक्षीय भाषण देते हुए
 तुम जो सोच रहे हो, वो सौदे की बातें हैं
आँख खुली तब से हम, बाग़ी जाने जाते हैं
जिन्‍हें पेट को, सर से ऊपर, रखना आता है
बिकते है जो, जूतों तक में, हलुआ खाते है

भ्रम छोड़ो बाजार बड़ा है, सब कुछ बिकता है
लेकिन जो दुर्लभ है, क्‍या मण्‍डी में दिखता है
भीड़ बहुत होने से ही, बस्तियाँ नहीं बसतीं
मुट्ठीभर दीवानों के दम पर जग टिकता है

माना तुमने सदा यही, तेवर दिखलाये हैं
लेकिन याद करो रवि ने क्‍या तम विदुराये हैं
सबका रक्‍त लाल होता है, शत प्रतिशत सच है
लेकिन कुछ ज्‍वाला, तो कुछ, पानी कहलाये है

कान तुम्‍हारे आदी हाँ हाँ कहने वालों के
सबको अर्थ ज्ञात है पर इन टेढ़ी चालों के
भूलो मत भस्‍मासुर खुद पा कर वरदानों को
भस्‍म हुआ मय खड्ग, कवच, रक्षक ढालों के

बहुत पुराना कुनवा है, हम मस्‍त फकीरों का
जमघट तुमको घेरे रहता सदा वज़ीरों का
एक नाव में कैसे बैठें, तुम तो डरते हो
धारा के विपरीत जूझना परिचय वीरों

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

'आकुल'

अँगना छूटा,
घर गलियाँ भी।।

पनघट कहाँ, कहाँ अठखेली,
जमघट से बाजार पटे।
बटवृक्षों की थाती इतनी,
रिश्‍तों के भ्रमजाल हटे।
जब से मन के बाँध बँधे।
मधुबन छूटा,
रँगरलियाँ भी।।

झगड़े टंटे, आपाधापी,
जैसे पैरों फटी बिवाई।
मकड़जाल में फँसी उमरिया,
सुख पहुँचा, आँखें पथराई।
जब से मन की पीर घटी।
कसबल छूटा,
खलबलियाँ भी।।

चंदनवन दिन, केसर रातें,
मधुकोष भरी ॠतुएँ देखीं।
घर का ना नेह घटा किंचित्,
बस उमर सदा घटते देखीं।
जब से मन आकाश हुआ।
कथना छूटा,
कनबतियाँ भी।।

सतरंगी सपने चाहत के,
घर से दूर भगा लाये।
सागर ने फैलाई बाहें,
मुड़कर क़दम न जा पाये।
जब से मन की आँख खुली।
कल युग छूटा,

बुधवार, 26 सितंबर 2012

नरेंद्र कुमार चक्रवर्ती 'मोती'

चन्‍दन की सुरभि में लिपटा स्‍वर्ण प्रलोभन
मात्र यही अनुरोध है, छाया तुम मत छूना मन

नहीं जरूरी यह, जो चाहो, वही मिले
हर उपवन में, कोयल बोले, फूल खिले
भ्रम है छल है सब, पास है वो ही अपना है
क्षणभंगुर आकृतियाँ हैं, सच में तो यह सपना है
जान ले तू यह सत्‍य कटु, करके तू मन मंथन
मात्र यही अनुरोध है---------

कहीं कमी है श्रम की, कहीं दुविधा है निष्‍ठा की
कहीं दौड़ पैसे की है, कहीं पर झूठी प्रतिष्‍ठा की
यहाँ हर कोई ओढ़े है, एक दुशाला परमार्थ का
मार्ग बनाता उल्‍टे-सीधे, वह अपने ही स्‍वार्थ का
साहस है किस में करे, इन परम्‍पराओं का मन खंडन
मात्र यही अनुरोध है-----------

यहाँ हर क्षेत्र में, एक से एक बढ़ कर पंडित
क्षु्द्राकांक्षाओं से पीड़ित, महाभियोग से दंडित
सोच कर परख कर, यहाँ मार्ग तू अपना लेना
देखना समझना सबको, मुँह से कुछ न कहना
पुष्‍पमाला की ओट भी, होता है एक मन बंधन
मात्र यही अनुरोध है----------------

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

प्रमिला आर्य


23-09-2012 को गोष्‍ठी में काव्‍यपाठ करतीं कवयित्री प्रमिला आर्य 
हार का भी जीत का भी ज़िन्दगी तो एक मेला
राग का औ द्वेषता का मनुज ने है खेल खेला

ज़िन्दगी तो इक समर है डाल ना हथियार डर के
वीर बन के सामना कर सिंह स़ी हुंकार भर के
जीत ले बन दीप तू घनघोर अँधियारा जो फैला

चिकनी चुपड़ी बात करते पीठ पे वो ही वार करते
मीत ना होते कभी वे व्यर्थ में जो दम्भ भरते
मस्त हो वे घूमते औ सज्जनों ने कष्ट झेला  
            
ठान ली गर मन में अपने कष्ट से क्यूँ आह भरना
ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या है डरना
हौसलों के पर लगा कर भर उड़ानें तू अकेला

अपनी आँखें बंद करके कर ना तू विश्वास जग में
फूल से जो रम्य दिखते शूल वो ही बोते मग में
आस्‍तीन के साँप बन कर दंश देते हैं विषैला

रोएगा तो जग हँसेगा तू हँसेगा जग जलेगा
जगत् की है रीत न्यारी अपना बन तुझको छलेगा
मीत अपना तू स्वयं बन सुखद हो या दुखद बेला

काल की ही ताल पे ये थिरकता संसार सारा
काल के ही वार से फिर सिहरता संहार हारा
नाश कर देगा ये ऐसे जैसे माटी का हो ढेला

हार का भी जीत का भी ज़िन्दगी तो एक मेला
राग का औ द्वेषता का मनुज ने है खेल खेला

सोमवार, 24 सितंबर 2012

डा0 भँवर लाल तिवारी 'भ्रमर'

ओ विप्र वैश्‍य क्षत्रिय शूद्रवीर
भारत रक्षण का उठा भार
कर प्राणों की आहुति अर्पण
दो जननी का संकट संहार

दुविधाओं कष्‍टों के समक्ष
तुम रहो अचल गिरि से सदैव
यदि हो अनुशासन बढ़ने का
बढ़ चलो वायु बढ़ती सदैव

तुम पर माता का अतुल प्‍यार
तुम युवक हिन्‍द के होनहार
आज़ादी क़ायम रखने को
लो इन कन्‍धों पर बोझ भार

तुम में देवों का पवित्र रक्‍त
तुम ॠषि प्रवीण तुम गरु महान
दे स्‍वस्ति वाच्‍य कर दो सशक्‍त
यह भारत हो फि‍र सौख्‍यवान

उठ देश अंग मानव विभूत
उठ मातृभूमि के शुचि सपूत
नहिं ऊँच-नीच नहिं भेद-भाव
सब धरा रत्‍न सब ईशदूत

मत बनो पतित कर्तव्‍यहीन
खोवो न आत्‍मबल निज अटूट
पर द्रव्‍य देख तज आत्‍म ज्ञान
भोली जनता को लो न लूट

हो विश्‍व शांति हो विश्‍व प्रेम
सुर करें डाह भू लोक देख
आ जाए फि‍र सतयुग सुकाल
हो राम राज्‍य की रूप रेख

बन जाए उर्वरा सकल भूमि
हो परिपूर्ण फि‍र देश कोष
भूले जनता फि‍र द्रोह द्वेष
सब मिल बोलें जय हिन्‍द घोष।

रविवार, 23 सितंबर 2012

डा0 सत्‍य नारायण सिंह 'आलोक'

मानस करे पवित्र चिरंतन शाश्‍वत और अविराम।
मर्यादा पुरुषोत्‍तम की परिभाषा चिर श्री राम।
भारत की आँखों से जिसने परखा भाँप लिया,
रिश्‍तों की मर्यादाओं को मान दिया बन आम।
तात, मात, भ्राता, पत्‍नी, रिपु, मित्र या जनमानस,
तन-मन-धन से रहे समर्पित नित्‍य राम निष्‍काम।
तुलसी की कल्‍पना नहीं ना वाल्‍मीकि के श्‍लोक,
धरती पर अवतरित मनुज तन ले छवि मोहक श्‍याम।
आज जगत् पहचान चुका है तज कर तन का रंग,
शोध हो रहे पुण्‍य धरा पर अब नित सुबह औ शाम।
जीत धर्म की, नाश पाप का होते नित उद्घोष,
पश्चिम में भी नित्‍य भोर बेला में शुभ हरि नाम।
भारत में है भले विवादित निज कुंठा वश आज,
लेकिन विश्‍व समूचा सस्‍वर गाता सीता राम।
अमेरिका में हिण्‍डा कामिल बुल्‍के भारत देश,
किस-किस ने ना किया शोध मानस पर ले हरि नाम।
शिव ही राम, राम ही शिव, क्‍यों वैचारिक टकराव,
गीता, बाइबिल, कुरान, मानस सब में है श्रीधाम।
पढ़ लें तो पावन कर दे मन, सुनें तो कर्ण पवित्र,
मर्यादा का कर ले पालन, तो घर चारों धाम।
मन धनुहीं के बाण चले, फि‍र टिके कहाँ अन्‍याय,
देश न जीते, जीते मनवा, मिले सुखद परिणाम।
मन का अंधकार मिट जाए हो विकसित ‘आलोक’,
कर्म वचन के सतत शिरोमणि सबके राजा राम।  

शनिवार, 22 सितंबर 2012

शकूर अनवर

दिल से जब दिल जु़दा नहीं होता
दायें से तीसरे शकूर अनवर
फि‍र कोई फासला नहीं होता
आप होते रहें ज़माने के
हर कोई आपका नहीं होता

उसकी इंसानियत नहीं मरती
वो अगर देवता नहीं होता
खु़द के बारे में सोचना छोड़ो
इस में सब का भला नहीं होता
डर के बाइस दुआएँ मत माँगो
बुज़दिलों का खु़दा नहीं होता
चेहरे होते हैं सब के पास ‘अनवर’
सब के पास आईना नहीं होता

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

कवि कुलवंत सिंह

यकीं किस पर करूँ  मैं आइना भी झूठ कहता है।
दिखाता उल्टे को सीधा व सीधा उल्टा लगता है॥
दिये हैं जख्‍म उसने इतने गहरे भर न पायेंगे,
भरोसा उठ गया अब आदभी हैवान दिखता है।
शिकायत करते हैं तारे जमीं पे आके अब मुझसे,
मुश्किल है देखना इंसान को नंगा नाच करता है।
वजह तो है दोस्ती और दुश्भनी की अब तो बस पैसा,
जरूरत पड़ने पर यह दोस्त भी अपने बदलता है।
है बदले  में वही पाता जो इसने था कभी बोया,
इसे जब सह नही पाता अकेले में सुबकता है।
भले कितनी गुलाटी मार ले चालाक बन इंसां,
न हो मरजी खुदा की तब तलक पानी ही भरता है।
बने हैं पत्थरों के शहर जब से काट कर जंगल,
हक़ीक़त देख लो इंसान से इंसान डरता है।

पुस्‍तक 'क़ज़ा' से

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

आर सी शर्मा 'आरसी'

सूर्य की पहली किरण हो चहकती मनुहार हो तुम
प्रीत एक पावन हवन है दिव्‍य मंत्रोच्‍चार हो तुम

इस धरा से व्‍योम तक तुमने उकेरीं अल्‍पनाएँ
छू रहीं हैं अंतरिक्षों को तुम्‍हारी कल्‍पनाएँ
चाँदनी जैसे सरोवर में करे अठखेलियाँ
प्रेमियों के उर से जो निकलें वही उद्गार हो तुम
प्रीत एक पावन हवन है दिव्‍य मंत्रोच्‍चार हो तुम

रातरानी, नागचम्‍पा, गुलमोहर, कचनार हो
तुम रजत के कंठ में ज्‍यों स्‍वर्णमुक्‍ता हार हो
रजनीगंधा की महक तुम हो गुलाबों की हँसी
केतकी, जूही, चमेली, कुमुदिनी गुलनार हो तुम
प्रीति एक पावन हवन है, दिव्‍य मंत्रोच्‍चार हो तुम

जोगियों का तप हो जप हो आरती तुम अर्चना
साधकों का सध्‍य तुम ही भक्‍त्‍ा की हो भावना
पतित पावन सुरसरि कालिंदी तुम हो नर्मदा
पुण्‍य चारों धाम का हो स्‍वयं ही हरिद्वार हो तुम
प्रीत एक पावन हवन है दिव्‍य मंत्रोच्‍चार हो तुम

हो न पाउँगा उॠण मैं उम्रभर इस भार से
पल्‍लवित पुष्पित किया यह बाग तुमने प्‍यार से
स्‍वामिनी हो तुम हृदय की प्रीत हो तुम ही प्रिया
जो बिखेरे अनगिनत रंग फागुनी त्‍योहर हो तुम
प्रीत एक पावन हवन है दिव्‍य मंत्रोच्‍चार हो तुम

बुधवार, 19 सितंबर 2012

गयास फाईज़

मासूमों का खून बहाया नाहक दहशतगर्दों ने
दिल की अपनी प्‍यास बुझाई आतंकी नामर्दों ने
कितने हैं मुस्‍तैद मुहाफि‍ज़ काबीना सरकारों के
सच्‍चाई को उगल दिया है आज पुरानी फर्दों ने
किसने रची है इस साजिश को इसमें किसका हाथ रहा
राज़ छुपाए रखा है शायद चंद सियासी पर्दों ने
ढेरों जानें गई हैं, लेकिन प्‍यार मोहब्‍बत ज़िन्‍दा है
दुनिया को पैग़ाम दिया है भारतवासी मर्दों ने
देख के जिनको हैवानों की काँप उठी है रूहें भी
'फाईज़’ ऐसा काम किया है अमन के दुश्‍मन बेदर्दों ने

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

पूर्णिमा वर्मन

यादों की घनी छाँह से पर्वत के देवदार
बचपन के एक गाँव से पर्वत के देवदार

गरमी की तंग साँस में राहत बने हुए
भीगे हुए तुषार से पर्वत के देवदार

मौसम की भीड़ भाड़ में मिश्री घुले हुए
शरबत का एक गिलास से पर्वत के देवदार

साँपों-सी लिपटती हुई सड़कों का कारवाँ
चंदन के एक दयार से पर्वत के देवदार

गहमी हुई पहाड़ियों में टट्‌टुओं का शोर
ठहरे हुए गुबार से पर्वत के देवदार

सोमवार, 17 सितंबर 2012

कृष्‍ण कुमार नाज़


राह तकता है तुम्‍हारी गाँव, अब घर लौट आओ--------

छोड़कर अपनी मढ़ैया, क्‍यों शहर में जा बसे तुम
बिन तुम्‍हारे लग रहा, घर अनमना, चौपाल गुमसुम
धूप के थकने लगे हैं पाँव, अब घर लौट आओ-------

याद कर-कर के तुम्‍हें, माँ ने बुरी हालत बना ली
वृद्ध बापू की निगाहें, बन गईं जैसे सवाली
ज़िन्‍दगी है या कि हारा दाँव, अब घर लौट आओ--------

खेत प्‍यासे हैं, महीनों से नहर सूखी पड़ी है
फ़स्‍ल जो कुछ है, महाजन की नज़र उस पर गड़ी है
कुछ ठिकाना है, न कोई ठाँव, अब घर लौट आओ-------

लौट कर बरसात का, मौसम अभी आया नहीं है
इसलिए टूटा हुआ, छप्‍पर अभी छाया नहीं है
पेड़ में छिपने लगी हैं छाँव, घर लौट आओ--------

राह तकता है तुम्‍हारी गाँव, अब घर लौट आओ------