शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

डा0 अशोक 'गुलशन'


1 जून 2011 को बहराइच (उत्‍त्‍र प्रदेश) में प0 बृज बहादुर पाण्‍डेय सम्‍मान कार्यक्रम में डा0 'गुलशन'
कभी बैठ कर कभी लेट कर चल कर रोये बाबूजी
घर की छत पर बैठ कि‍नारे जम कर रोये बाबूजी। 
अपनों का व्‍यवहार बुढ़ापे में गै़रों सा लगता है,
इसी बात को मन ही मन में कह कर रोये बाबूजी। 
बहुत दि‍नों के बाद शहर से जब बेटा घर को आया,
उसे देख कर ख़ुश हो कर के हँस कर रोये बाबूजी। 
नाती पोते बीबी-बच्‍चे जब-जब उनसे दूर हुए,
अश्‍कों के गहरे सागर में बह कर रोये बाबूजी। 
जीवन भर की करम-कमाई जब उनकी बेकार हुई,
पछतावे की ज्‍वाला में तब दह कर रोये बाबूजी। 
शक्‍ति‍हीन जब हुए और जब अपनों ने ठुकराया तो,
पीड़ा और घुटन को तब-तब सह कर रोये बाबूजी। 
हरदम हँसते रहते थे वो कि‍न्‍तु कभी जब रोये तो,
सबसे अपनी आँख बचा कर छुप कर रोये बाबूजी। 
तन्‍हाई में गुलशनकी जब याद बहुत ही आयी तो,
याद-याद में रोते-रोते थक कर रोये बाबूजी।

2 टिप्‍पणियां:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

Nice .

RAGHUNATH MISRA ने कहा…

डा.अशोक पाण्डेय "गुलशन" की रचना"बाबूजी" हृदय को छु लेनेवाली होने के साथ- साथ अनेक बिंदुओं पर पुत्रों-पुत्रियों और सामान्य जन को असस्लियत से जुड कर अपने श्रेष्ट दायित्व निर्बहन का सन्देश देती है.बधाई.