गुरुवार, 30 अगस्त 2012

ग़ाफ़ि‍ल स्‍वामी



3 नवम्‍बर 2011 को परियावाँ (उ0प्र0) में सम्‍मान कार्यक्रम में आलेख एवं कविता पाठ करते हुए
मिलने का मौसम है नजर मिलाकर मिल।
कल किसने देखा है अब ही आकर मिल॥
 
दुनियां का हर दर्द छुपा है इस दिल में,
तू भी अपना दर्द साथ में लाकर मिल॥   

मंदिर मस्जिद गिरजाघर में क्या रक्खा,
माँ के चरणों में नित शीश झुकाकर मिल॥
 
सुखियों से तो मिलते हैं सब लोग यहाँ,
दुखियों को भी दिल से कभी लगाकर मिल॥

 
नफरत और क्रोध की ज्वाला में मत जल, 
मन में दीप प्यार के सदा जलाकर मिल॥
 
जीते जी फुर्सत कभी होगी तेरी, 
हरि सुमिरन में भी कुछ वक्त बिताकर मिल॥
 
दुनिया दीवानी होगी तेरी 'गाफिल',
मन के सारे भेद-भाव बिसरा कर मिल॥










बुधवार, 29 अगस्त 2012

डा0 फ़रीद अहमद 'फ़रीदी'




22-08-2010 को 'आकुल' की पुस्‍तक 'जीवन की गूँज' का लोकार्पण करते हुए विद्वान्















यह कृष्‍ण की कृपा है, जिसने यह दिन दिखाया।
साहित्‍य का फ़रिश्‍ता, धरती पे उतर आया।

‘जीवन की गूँज’ में क्‍या जादू सा है दिखाया।
ईश्‍वर ने यार दिल का पारस तुम्‍हें बनाया।
जो क़रीब आया तेरे, कुन्‍दन उसे बनाया।
साहित्‍य का फ़रिश्‍ता-----------------

डा0 फ़रीदी काव्‍यपाठ करते हुए 
जो जन्‍म से है ‘आकुल’ आकुल रहेगा यारो।
सेवा में सरस्‍वती की पागल रहेगा यारो।
साहित्‍य का फ़रिश्‍ता----------------

शब्‍दों में ढाल देते हो भावना के मोती।
सोने में जो सुहागा, हर बात ऐसे होती।
पाया है तुमको जैसा वैसा तुम्‍हें बताया।
साहित्‍य का फ़रिश्‍ता-----------------

‘आकुल’ के दोनों बाजू, सहयोगी ऐसे-ऐसे।
रघुनाथ मिश्र जैसे, हैं नरेंद्र ‘मोती’ जैसे।
साहित्‍य का फ़रिश्‍ता ------------------

सच बोले ये ‘फ़रीदी’ हैरत है इसमें कैसी।
सब तुमको जानते है, जो दोस्‍त हैं क़रीबी।
सूरज हो तुम तो सूरज हमने है दिखाया।
साहित्‍य का फ़रिश्‍ता--------------------
'जीवन की गूँज' पर  आलेख प्रस्‍तुत करतीं डा0 कंचना संक्‍सैना

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

रघुनाथ मिश्र

27 दिसम्‍बर 2009 को रघुनाथ मिश्र  काव्‍य गोष्‍ठी में काव्‍य पाठ करते हुए


















मैं परिन्दों की जगह ख़ुद को कहीं पाता हूँ ,
आशियाना भी उसी तर्ज पे बनाता हूँ
खु़द के कंधे पे सभी बोझ ख़ुद उठाता हूँ 
मतलबी यार से यारी का भला क्या मानी
प्यार की ओर सहज ही मैं खिंचा जाता हूँ
छीन औरों से मँगाता है तू महँगी थाली 
मूल्य ग़ायब है पतन आदमी का है जारी
पालें गन्तव्य यही सीखता सिखाता हूँ
सौवीं में यूँ ही हाथ और पग हिलाता हूँ
ये मेरा यार ही है जो जल गया चराग़ों सा
मैं पतंगों की तरह खामखाँ मँडराता हूँ
कर दिया हँसते हुए सारी ज़िन्दगी कुरबाँ
उन शहीदों से हौसलों की अदा पाता हूँ
हार मानी न कभी अपनी बदगुमानी में
उन हजारों को आत्मबल से मैं हराता हूँ