सीपियों में मोतियों की लग गई लड़िया सँवरने
कुछ नये अध्याय खोले रागिनी ने
वाटिकाओं में कपोलों की लगे फिर फूल खिलने
कोर आकर अधर के रुक गया कोई सितारा
धुल गये पल सब अनिश्चय के हृदय से
खोल परदा रश्मियाँ फिर मुस्काराई
बन्दिनी थी भावना मन के विवर मे
ज्योत्सना को ओढ़ फिर से जगमगाई
राकेश खण्डेलवाल |
रंग उजड़े रंग में फिर से भरे नव
फाग छेड़े कुछ नये पुरवाइयों ने
एक बादल को लिया भुजपाश में भर
कसमसाकर थक रही अँगड़ाइयों ने
स्वप्न ने शृंगार कर निज को सँवारा
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा।।
रात की सूनी पड़ी पगडंडियों पर
पालकी आई उतर निशिगंध वाली
वेणियों के पुष्प्गुच्छों से इतर ले
माँग अपनी नव उमंगों से सजा ली
लग पड़ी बुनने छिटकती रश्मियों से
भोर के पथ में बिछाने को गलीचे
नीर ले सौगंध के आभास वाला
क्यारियों में फिर नये विश्वास सींचे।
नोन राई ले कलुष सारा उतारा।
वेदना ने स्पर्श जब पाया तुम्हारा।
पीर की सारंगियों की धुन बदलकर
चढ़गई मुंडेर अभिलाषायें नूतन
कामना की सीढ़ियों पर पाँव धर कर
तोड़ कर तटबंध सारे संयमों के
जाह्नवी निर्बाध उमड़ी भावना की
जिन्दगी के तप्त मरुथल में लगा यों
आ गई घिर कर घटायें साधना की
ढल गया सारा सुधा में अश्रु खारा
1 टिप्पणी:
'धुल गये पल सब अनिशय के ह्रिदय के' वाह.
डा. रघुनाथ मिश्र.
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