शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

अरुण सेदवाल, कोटा


मेरी आवारगी बदनाम क्‍यूँ है?
मेरी शाइस्‍तगी गुमनाम क्‍यूँ है?
मैंने कल रात ही तौबा करी थी,
मेरे हाथों में फि‍र से ज़ाम क्‍यूँ है?
रात तो रात है, होती ही है,
सुबह होते भी लगती शाम क्‍यूँ है?
कभी देखी नहीं बदनाम गलियाँ,
मेरी नीयत पे फि‍र इल्‍ज़ाम क्‍यूँ है?
बुलाया उसने मुझ को आज फि‍र से,
भला मुझसे भी कोई काम क्‍यूँ है?
कोई बतलाए मुझको राज़ इसका,
मेरा क़ातिल मेरा हमनाम क्‍यूँ है?

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

मेरी नियत पे फिर ये इल्जाम क्युँ. वाह सेद्वल जी. श्रेश्टा को सलाम.
डा. रघुनथ मिश्र्