सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

जगदीश 'व्‍योम', दिल्‍ली

जगदीश 'व्‍योम'
इतने आरोप न थोपो
मन बागी हो जाए
मन बागी हो जाए,
वैरागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो...



यदि बांच सको तो बांचो
मेरे अंतस की पीड़ा
जीवन हो गया तरंग रहित
बस पाषाणी क्रीडा
मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
जब अकुलाती है
शब्दों की लहर लहर लहराकर
तपन बुझाती है
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
आगी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!


खुद खाते हो पर औरों पर
आरोप लगाते हो
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
संग बिक जाते हो
आरोपों की जीवन में जब-जब
हद हो जाती है
परिचय की गांठ पिघलकर
आंसू बन जाती है
नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
बैरागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!

कविताकोश से साभार

1 टिप्पणी:

डा. रघुनाथ मिश्र् ने कहा…

इतने आरोप न थोपो मन.... वाह योम जी.सार्थक-श्रेश्ट्-पठनीय् -रचना के लिये बधाई.
डा. रघुनाथ मिश्र