साहिर लुधियानवी |
एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदासरी
चाक दिल और भी हैं चाक क़बा और भी हैं
क्या हुआ गर मेरे यारों की ज़ुबानें चुप हैं
मेरे शाहिद मेरे यारों के सिवा और भी हैं
सर सलामत है क्या संग-ए-मलामत की कमी
जान बाकी है तो पैकान-ए-कज़ा और भी हैं
मुंसिफ़-ए-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाये
लोग कहते हैं कि अरबाब-ए-जफ़ा और भी हैं
मस्लक-ए-शोरीदासरी- दीवानगी का रास्ता, क़बा- चोगा
संग-ए-मलामत- पत्थर मार कर भर्त्सना, पैकान-ए-कज़ा- मौत की बर्छी
मुंसिफ-ए-शहर – न्यायाधिपति, वहदत- एकता, अरबाब-ए-जफ़ा–अत्याचार करने वाला खु़दा
1 टिप्पणी:
शयरी मेँ सहिर लुधिआनवी क दौर अविश्मर्णेय रहेगा. इस दिल्कश पेशकश के लिये सधुवाद
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डा. रघुनाथ मिश्र्
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