उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे
बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे
दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे
होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे
वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे
कविता कोश से साभार मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे
1 टिप्पणी:
"मैने काँधे पै 'कुंवर' हँस के बिठाया था जिसे"
क्या बात है. बधाई.
डा. रघुनाथ् मिश्र्
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