शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

डा0 दयाकृष्‍ण विजय


नकारो मत कभी अस्तित्‍व छोटा भी इकाई का।
न जाने पत्र कब लिखना पड़े उसको बधाई का।
इकाई तो इकाई, शून्‍य तक की है बड़ी महिमा,
दिला सम्‍मान देती है सहज ही जुड़ दहाई का।
लिखे जो शब्‍द हाथों की लकीरों में पढ़े किसने,
असम्‍भव है न बनना इस सदी में मेरु राई का।
फि‍सल कर लोग गिरते हैं सयाने भी सड़े दह में,
बिसर कर ध्‍यान पनघट की रिसकनी दुष्‍ट काई का।
छिपा बैराट्य चींटी की तनिक सी देह में दिखता।
समझ में अर्थ आ जाये अगर अक्षर अढ़ाई का।
नहीं है व्‍यर्थ जो कुछ भी प्रकृति ने सृज सँवारा है,
दिया हर अवतरण ने मंत्र जीवन की सच्‍चाई का।
'विजय' विश्‍वास थोड़ा तो करो अस्तित्‍व पर अपने,
लगेगा, दे रहा तृण-तृण निमंत्रण आ सगाई का।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

एहतेशाम अख्‍़तर पाशा

ग़ज़ल

कहानी दर्द की मैं ज़िन्‍दगी से क्‍या कहता।
यह दर्द उसने दिया है उसी से क्‍या कहता।
ग़ि‍ला तो मुझको भी करना था प्‍यास का लेकिन,
जो ख़ुद ही सूख गई, उस नदी से क्‍या कहता।
मैं जानता हूँ लहू सब का एक होता है,
जो ख़ूँ बहाता हो उस आदमी से क्‍या कहता।
मेरे अज़ीज़ ही मुझको समझ न पाये कभी
मैं अपना हाल किसी अज़नबी से क्‍या कहता।
अँधेरी रात ने मुझको बहुत सताया है,
भला यह बात मैं अब रोशनी से क्‍या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज था ‘अख्‍़तर’
मैं अपने ग़म की हक़ीक़त किसी से क्‍या कहता।

बुधवार, 5 सितंबर 2012

मदन लाल राठोड़


लाखेरी राजस्‍थान में फरवरी 2007 में जलेस कीलाखेरी इकाई की स्‍थापना के अवसर पर साहित्‍यकार
          वृक्ष 
पात पात कह रहे हैं, शाख-शाख से।
क्‍यों उखड़ रहे हैं प्राण, साँस-साँस से?
डाल-डाल कह रही है तने-तने से।
क्‍यों खड़ें हैं हम, बने-बने से?
तना-तना कह रहा है जड़ों-जड़ों से।
क्‍यों लग रहे हैं खड़े, बड़ों-बड़ों से?
जड़ें-जड़ें कह रही हैं, माटी-माटी से।
क्‍यों काट रहे हैं जन, आरी-कुल्‍हाड़ी से?
माटी-माटी कह रही है, इंसान-इंसान से।
क्‍यों वृक्ष बिन जी सकोगे, शान-शान से?
इंसान-इंसान कह रहे हैं छोर-छोर से।
क्‍यों शब्‍द लग रहे, घनघोर-घोर से?
छोर-छोर कह रहे हैं भाव-भाव से। 
क्‍यों न हरा-भरा होगा वृक्ष, हाव-भाव से?
(पुस्‍तक-सच तो है से)

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

अबनीश सिंह चौहान



युवा नवगीतकार अवनीश सिंह चौहान को प्रथम कविताकोश 2011 पुरस्‍कार
नयी चलन के इस कैफे में
प्रथम कविताकोश के लिए प्रशस्ति पत्र और मोमेन्‍टो लेते हुए अबनीश सिंह चौहान
शिथिल हुईं सब धाराएँ

पियें-पिलायें, मौज उड़ायें
मिल ठनठनायें मनचले
देह उघारे, करें इशारे
जुड़ें-जुड़ायें नयन-गले

मदहोशी में इतना बहके
भूल गये सब सीमाएँ!

झरी माथ से मादक बूँदें
साँसों में कुछ ताप चढ़ा

थोड़ा पानी रखो बचाकर
करते क्यों आँखें परती?

जब-जब मरा आँख का पानी
आयीं तब-तब विपदाएँ!
लखनऊ: २६ एवं २७ नवंबर २०११ को अभिव्यक्ति विश्वम् (http://www.abhivyakti-hindi.org/) के सभाकक्ष में आयोजित  नवगीत परिसंवाद एवं विमर्श में अवनीश सिंह चौहान, पूर्णिमा वर्मन आदि अनेकों साहित्‍यकार
अबनीश सिंह चौहान के ब्‍लॉग पूर्वाभास से साभार