सोमवार, 3 सितंबर 2012

डा0 नलिन


घर तो अपना होता है।
सदा प्‍यार करने वालों का
साझा सपना होता है।
मिले चैन की दो रोटी ही
और नींद भर नींद मिले बस।
इतना सा ही मिले जाये तो
फि‍र कुछ भी ना मिले बस।
थोड़ा थोड़ा बहे भले ही
सबका ही पर बहे पसीना।
एक दूसरे की खुशियों में
रहे फूलता सबका सोना।
नन्‍हें मुन्‍नों को घर देना
छूने देना गालों को भी।
हँसी खेल में वो खींचे तो
खिंचवा लेना बालों को भी।
घर है जीवन, जीवन है घर
अच्‍छा घर तो अच्‍छा जीवन।
घर से बनते जगती के
चित्र सुनहरे नित नित नूतन।

रविवार, 2 सितंबर 2012

शरद तैलंग


कभी जागीर बदलेगी, कभी सरकार बदलेगी,
मगर तक़दीर तो अपनी बता कब यार बदलेगी?
अगर सागर की यूँ ही प्यास जो बढती गई दिन दिन,
तो इक दिन देखना नदिया भी अपनी धार बदलेगी. 
हज़ारोँ साल मेँ जब दीदावर होता है इक पैदा,
तो नर्गिस अपने रोने की तू कब रफ्तार बदलेगी?
सदा कल के मुकाबिल आज को हम कोसते आये,
मगर इस आज की सूरत भी कल हर बार बदलेगी.
वो सीना चीर के नदिया का फिर आगे को बढ जाना,
बुरी आदत सफीनोँ की भँवर की धार बदलेगी.
शरद पढ़ लिख गया है पर अभी फाके बिताता है,
ख़बर उसको न थी क़िस्मत जो होँ कलदार बदलेगी।



शनिवार, 1 सितंबर 2012

कवि सुधीर गुप्‍ता 'चक्र'


बी एच ई एल के महाप्रबंधक प्रभारी श्री ए के दबे से वर्ष 2011 के लिए हिन्दी चल वैजन्ती प्राप्त करते हुए मध्य में नीली शर्ट पहने हुए हिन्दी समन्वयकर्ता एवं कवि सुधीर गुप्ता "चक्र"।

घर की ढेरों चीजें 
जो व्यवस्थित रखी हैं
अपने-अपने स्थान पर 
 फिर भी
हम भूल जाते हैं  
रखकर उन्हें
दो ही लोग निभाते हैं 
केवल इस जिम्मेदारी को
जो 
आज हमारे साथ हैं
समय बीतते
साथ छोड़ दिया 
दोनों ने
अब हम  चीजों की जगह
साहित्‍यकार-5 में कवि सुधीर गुप्‍ता 'चक्र'
अम्मा और बाबूजी 
को भूलने लगे हैं
घर की चीजें  
जो यहां-वहां पडी‌ हैं
उन्हें संभालना अब 
हमारी जिम्मेदारी है
बंटवारे में हमारे हिस्से में 
मिली चीजों को
संभालकर रखने में 
निकल जाता है आधा दिन
अब वह सबकी नहीं 
बल्कि
केवल हमारी सम्पत्ति का हिस्सा हैं।
बुलन्‍द शहर में सम्‍मानित