रविवार, 9 सितंबर 2012

डा0 इन्‍द्र बिहारी सक्‍सैना


मोटी पर्त जमी काई की, अब उजले सोपानों पर।
होता है विश्‍वास हमें अब, बरगद के वरदानों पर।
अपनी नौका पतवारों से, अ‍नगिन सागर पार किये,
किन्‍तु सफ़र को हम उत्‍सुक हैं, कागज़ के जलयानों पर।
रोम-रोम तक रहन विदेशी कर्ज़ों, कोषागारों में,
इसीलिए है पहरा अपनी, इन निश्‍छल मुस्‍कानों पर।
चुनी हिंडोलों की ख़ातिर, जामुन की हमने शाखाएँ,
पछताए तब, दूर गिरे जब, हम निर्मम चट्टानों पर।
हृदय विदारक घटनाओं पर, नहीं पसीजी जो पलकें,
स्‍वयं लाज, लज्जिज ऐसे, पाहन मन दयानिधानों पर।
रिक्‍त बादलों सदृश गरजते, जब-जब संकट गहराया,
निरखा किए शत्रु का पौरुष, हो कर खड़े मचानों पर।
आयातित जल से ही अब तक, पौध सींचते हम आए,
दृष्टि जमी है जबकि जगत् की, अपने नख़लिस्‍तानों पर।
पर कतरे हमने अपने ही, हंसों, श्‍वेत कपोतों के,
भ्रमित और आशंकित क्‍यों हैं, अपने शर संधानों पर।
जिन चूहों ने अमराई की, जड़ें खोखली कर डाली,
सत्‍ता हित मिलता संरक्षण, उनको इन अभियानों पर।
जग चुँधियाया देख हमारी, प्रतिभा के उत्‍कर्षों को,
सजग रहें हम अपनी सीमा, खेत और खलिहानों पर।
बहुत बह चुका रक्‍त स्‍वर्ग सी अपनी केसर क्‍यारी में,
हल है अंतिम युद्ध, गर्व है, हमको सुभट जवानों पर।

शनिवार, 8 सितंबर 2012

पुरुषोत्‍तम 'यक़ीन'




जंजीर खुल के पांवों की गर्दन में डल गई
सचमुच ही कल से आज की सूरत बदल गई।
सौ की नहीं दोस्‍तों दस की सही मगर
अखिर कहीं तो देश में हालत सँभल गई।
और क्‍या सुबूत लीजिए सच्‍चे स्‍वराज का
गाँधी की शक्‍ल देश के सिक्‍कों पे ढल गई।
आधार तो क्‍या वो देश को पूरा ही बेच दें
मुख्‍तार वो हैं फ़ि‍र तेरी क्‍यूँ जान जल गई।
होते हैं क़त्‍ल अब तो सरे-आम देश में
क्‍या कह दिया अरे रे जुबाँ फि‍सल गई।
आज़ादियाँ नहीं हैं तो फि‍र क्‍या है ये यक़ीन
हर सम्‍त लूटमार की आँधी तो चल गई।।