शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

साज़ जबलपुरी

साज़िश ये रौशनी और अँधेरे की देखिये
साया भी मेरा अब कई हिस्‍सों में बँट गया

न थोड़ा प्‍यार करती है, न ज्‍यादा प्‍यार करती है
हमारी ज़िन्‍दगी तो एक सा व्‍यवहार करती है
इसे हर चाहने वाला ये खुशफहमी में जीता है
ये मुझसे प्‍यार करती है, मुझी से प्‍यार करती है

जिसका मक्‍़सद हर तरह से पाक था
कम नज़र लोगों में वो चालाक था
घुटने-घुटने पानी में जो मर गया
लोग कहते हैं कि वो तैराक था

क्‍या करें, कैसे करें, कितना करें, किसका करें
ज़िन्‍दगी हम बोझ तेरा कौन सा हल्‍का करें

बढ़ने लगें जिस वक्‍़त तक़ाजे ये पेट के
सो जाइएगा पैरों को अपने समेट के
इस देश में कोई नहीं नंगा रहेगा अब
हम लोग जियेंगे यहाँ वादे लपेट के

पुस्‍तक 'किरचें' से 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

रामेश्‍वर शर्मा

10-09-2012 को काव्‍यगोष्‍ठी में  साज़ जबलपुरी, नेहपाल वर्मा, आचार्य भगवत दुबे, डा0 नलिन और आगे रामेश्‍वर शर्मा
रामेश्‍वर शर्मा (रम्‍मू भैया)

वानप्रस्‍थी हूँ अभी संन्‍यास बाकी है
देखना भीतर मुझे मधुमास बाकी है
मत करो मेरी उड़ानों का अभी से आँकलन,
सौ गुना भीतर बड़ा आकाश बाक़ी है
हर तिथि, त्‍योहार के व्रतवास ढेरों कर लिए
श्रीचरण की आखिरी अरदास बाकी है
शंख घंटा आरती झालर सभी तो हो गये
पूर्णिमा की रोशनी में रास बाकी है
चीर कर हर चीर को आये तो कैसे वह भला
प्रह्लाद सा होना अभी विश्‍वास बाकी है
धाम चारों घूम कर भी चैन रामू को नहीं 
होना अभी तनवास का वनवास बाकी है

बुधवार, 12 सितंबर 2012

आचार्य भगवत दुबे

कोटा में 10-09-2012 को काव्‍यगोष्‍ठी में बायें से साज़ जबलपुरी, रघुनाथ मिश्र, नेहपाल वर्मा, आचार्य भगवत दुबे, डा0 नलिन और आगे रामेश्‍वर शर्मा (रम्‍मू भैया)
छूते ही हो गयी देह कंचन पाषाणों की 
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की
आचार्य भगवत दुबे

खंजन नयनों के नूपुर जब तुमने खनकाए
तभी मदन के सुप्‍त पखेरू ने पर फैलाए 
कामनाओं में होड़ लगी फि‍र उच्‍च उड़ानों की
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

यौवन की फि‍र उमड़ घुमड़ कर बरसीं घनी घटा 
संकोचों के सभी आवरण हमने दिए हटा 
स्‍वत: सरकनें लगी यवनिका मदन मचानों की 
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की 

अधरों से अंगों पर तुमने अगणित छंद लिखे
गीत एक-दो नहीं केलिके कई प्रबन्‍ध लिखे 
हुई निनादित मूक ॠचाएँ प्रणय-पुरोणों की 
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की 

कभी मत्‍स्‍यगंधा ने पायी थी सुरभित काया 
रोमंचक अध्‍याय वही फि‍र तुमने दुहराया 
परिमलवती हुईं कलियाँ उजड़े उद्यानों की 
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

सोमवार, 10 सितंबर 2012

कुँवर वीर सिंह मार्तण्‍ड




नवगीत

स्‍मृति के लाजपट खुले 
मटमैले चित्र क्‍यों धुले।

अनव्‍याही गदराई साँझ
पैठ गई तामस के गाँव
चंदा ने अंतस की बात
लिख भेजी धरती के नाम।
यौवन की देहरी के पास
फूलों के रूप रंग तुले।

नींद मुई बन उड़ी कपूर
चीख उठा धड़कन का कीर।
जाने किस आहट के पास
जाग पड़ी चुपके से पीर।
आँखों में पिघल गया मोम
पानी मे क्षार ज्‍यों घुले।

भावों के बाग हरसिंगार
महक उठे मलयानिल झूम।
मन की मधु‍बगिया में मोर
नाच उठे और मची धूम
चहक पड़ी कल्‍पना परी
बिखर गये गीत चुलबुले।