गुरुवार, 27 सितंबर 2012

'आकुल'

अँगना छूटा,
घर गलियाँ भी।।

पनघट कहाँ, कहाँ अठखेली,
जमघट से बाजार पटे।
बटवृक्षों की थाती इतनी,
रिश्‍तों के भ्रमजाल हटे।
जब से मन के बाँध बँधे।
मधुबन छूटा,
रँगरलियाँ भी।।

झगड़े टंटे, आपाधापी,
जैसे पैरों फटी बिवाई।
मकड़जाल में फँसी उमरिया,
सुख पहुँचा, आँखें पथराई।
जब से मन की पीर घटी।
कसबल छूटा,
खलबलियाँ भी।।

चंदनवन दिन, केसर रातें,
मधुकोष भरी ॠतुएँ देखीं।
घर का ना नेह घटा किंचित्,
बस उमर सदा घटते देखीं।
जब से मन आकाश हुआ।
कथना छूटा,
कनबतियाँ भी।।

सतरंगी सपने चाहत के,
घर से दूर भगा लाये।
सागर ने फैलाई बाहें,
मुड़कर क़दम न जा पाये।
जब से मन की आँख खुली।
कल युग छूटा,

1 टिप्पणी:

जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र ने कहा…

जब से मन की नाव चली. ह्रिदय्स्पर्शी रच्ना के लियी सधुवाद.
जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र