ग़ज़ल
कहानी दर्द की मैं ज़िन्दगी से क्या कहता।
ग़िला तो मुझको भी करना था प्यास का लेकिन,
जो ख़ुद ही सूख गई, उस नदी से क्या कहता।
मैं जानता हूँ लहू सब का एक होता है,
जो ख़ूँ बहाता हो उस आदमी से क्या कहता।
मेरे अज़ीज़ ही मुझको समझ न पाये कभी
मैं अपना हाल किसी अज़नबी से क्या कहता।
अँधेरी रात ने मुझको बहुत सताया है,
भला यह बात मैं अब रोशनी से क्या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज था ‘अख़्तर’
मैं अपने ग़म की हक़ीक़त किसी से क्या कहता।
दृष्टिकोण 5 (पृष्ठ 38 पर) से साभार
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