23-09-2012 को गोष्ठी में काव्यपाठ करतीं कवयित्री प्रमिला आर्य |
हार का भी जीत का भी ज़िन्दगी तो एक मेला
राग का औ द्वेषता का मनुज ने है खेल खेला
ज़िन्दगी तो इक समर है डाल ना हथियार डर के
वीर बन के सामना कर सिंह स़ी हुंकार भर के
जीत ले बन दीप तू घनघोर अँधियारा जो फैला
चिकनी चुपड़ी बात करते पीठ पे वो ही वार करते
मीत ना होते कभी वे व्यर्थ में जो दम्भ भरते
ठान ली गर मन में अपने कष्ट से क्यूँ आह भरना
ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या है डरना
हौसलों के पर लगा कर भर उड़ानें तू अकेला
अपनी आँखें बंद करके कर ना तू विश्वास जग में
फूल से जो रम्य दिखते शूल वो ही बोते मग में
आस्तीन के साँप बन कर दंश देते हैं विषैला
रोएगा तो जग हँसेगा तू हँसेगा जग जलेगा
जगत् की है रीत न्यारी अपना बन तुझको छलेगा
मीत अपना तू स्वयं बन सुखद हो या दुखद बेला
काल की ही ताल पे ये थिरकता संसार सारा
काल के ही वार से फिर सिहरता संहार हारा
नाश कर देगा ये ऐसे जैसे माटी का हो ढेला
हार का भी जीत का भी ज़िन्दगी तो एक मेला
राग का औ द्वेषता का मनुज ने है खेल खेला
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