होता है विश्वास
हमें अब, बरगद के वरदानों पर।
अपनी नौका पतवारों
से, अनगिन सागर पार किये,
किन्तु सफ़र को हम
उत्सुक हैं, कागज़ के जलयानों पर।
रोम-रोम तक रहन
विदेशी कर्ज़ों, कोषागारों में,
इसीलिए है पहरा
अपनी, इन निश्छल मुस्कानों पर।
चुनी हिंडोलों की
ख़ातिर, जामुन की हमने शाखाएँ,
पछताए तब, दूर गिरे
जब, हम निर्मम चट्टानों पर।
हृदय विदारक घटनाओं
पर, नहीं पसीजी जो पलकें,
स्वयं लाज, लज्जिज ऐसे, पाहन मन दयानिधानों पर।
रिक्त बादलों
सदृश गरजते, जब-जब संकट गहराया,
निरखा किए शत्रु का
पौरुष, हो कर खड़े मचानों पर।
दृष्टि जमी है जबकि
जगत् की, अपने नख़लिस्तानों पर।
पर कतरे हमने अपने
ही, हंसों, श्वेत कपोतों के,
भ्रमित और आशंकित क्यों
हैं, अपने शर संधानों पर।
जिन चूहों ने अमराई
की, जड़ें खोखली कर डाली,
सत्ता हित मिलता
संरक्षण, उनको इन अभियानों पर।
जग चुँधियाया देख
हमारी, प्रतिभा के उत्कर्षों को,
सजग रहें हम अपनी
सीमा, खेत और खलिहानों पर।
बहुत बह चुका रक्त
स्वर्ग सी अपनी केसर क्यारी में,
हल है अंतिम युद्ध,
गर्व है, हमको सुभट जवानों पर।
1 टिप्पणी:
गीत-ग़ज़ल-कविता की सभी विधाओं में सिद्धहस्त डा. इन्द्र्बेहरी सक्सेना सृजन धर्मियों के प्रेरणा श्रोत बन कर राष्ट्रीय स्तर पर प्रदेश-कोटा नगर को गौरवान्वित कर रहे हैं.प्रस्तुति प्रेरक है. बधाई.
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