दे रही तुझको दुआ, लाचार बूढ़ी माँ।
राह तकती आज, बीमार बूढ़ी माँ ।
राँधती पकवान, तेरे ही पसंदीदा,
यूँ मना लेती है,हर त्योहार बूढ़ी माँ ।
इस जहाँ में और तो, कोई नहीं उसका,
मानती तुझको है, हर त्योहार बूढ़ी माँ ।
छाँव रखने को सदा, औलाद के सिर पर,
झेलती खुद ही रही, अंगार बूढ़ी माँ ।
ढूँढ़ता फिरता है जिसको मंदिरों में तू,
है वह देवी का ही इक अवतार बूढ़ी माँ ।
जब कभी देखा 'मधु' मुझको नज़र आई,
तेज चलती साँस की, रफ्तार बूढ़ी माँ ।
दशम सम्मान समारोह (2011) पर प्रकाशित डा0 कृष्ण मणि चतुर्वेदी 'मैत्रेय' सम्पादित
'सरिता संवाद' (वार्षिक) से साभार ।
राह तकती आज, बीमार बूढ़ी माँ ।
राँधती पकवान, तेरे ही पसंदीदा,
यूँ मना लेती है,हर त्योहार बूढ़ी माँ ।
इस जहाँ में और तो, कोई नहीं उसका,
मानती तुझको है, हर त्योहार बूढ़ी माँ ।
छाँव रखने को सदा, औलाद के सिर पर,
झेलती खुद ही रही, अंगार बूढ़ी माँ ।
ढूँढ़ता फिरता है जिसको मंदिरों में तू,
है वह देवी का ही इक अवतार बूढ़ी माँ ।
जब कभी देखा 'मधु' मुझको नज़र आई,
तेज चलती साँस की, रफ्तार बूढ़ी माँ ।
दशम सम्मान समारोह (2011) पर प्रकाशित डा0 कृष्ण मणि चतुर्वेदी 'मैत्रेय' सम्पादित
'सरिता संवाद' (वार्षिक) से साभार ।
1 टिप्पणी:
बहुत ही सारगर्भित-सहज-सरल्-सहज ग्राह्य- प्रेरक तत्वोँ से सम्पन्न सुन्दर रचना प्रस्तुति के लिये ब्लागर- लेखक दोनोँ को हार्दिक बधाई.
- डा. रघुनाथ मिश्र्
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