आदमी
को छल रहा है आदमी
है
थका पर चल रहा है आदमी
आज
दुश्मन आदमी का आदमी
पर
सहारा कल रहा है आदमी
राजनीति
रोटियाँ खाकर यहाँ
मुफ़्त
में ही पल रहा है आदमी
जो
शिवा, नानक कभी गौतम रहा
देश
का संबल रहा है आदमी
दूर
है कर्तव्य से सन्मार्ग से
द्वेश
से अब जल रहा है आदमी
आदमी
दुर्लभ कृति भगवान की
दानवों
में ढल रहा है आदमी
आज
तिनके की तरह ‘गंभीर’ बिखरा
साथ
था जब बल रहा है आदमी।
मुकेश 'नादान' सम्पादित पुस्तक साहित्यकार-2 से साभार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें