गिरने का डर सँभलने नहीं देता
दंगे, बन्दूकों की दहशत, बारिश में
बच्चे को अब मचलने नहीं देता
सफेद लिबास, उदास सूचनी आँखें
आईना उसे अब सँवरने नहीं देता
पीगें, उमंगें मन में बहुत उठती पर
खूँटा उसको अब उछलने नहीं देता
हाथ बढ़ाती हैं खुशियाँ अक्सर
समाज का डर सँभलने नहीं देता।।
दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेशांक) से साभार
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