कम्बख़्त यह आईना है सच बोल रहा है
खुशबू है कि आँधी है यह मालूम तो कर ले
आहट पे ही दरवाज़े को क्यूँ खोल रहा है
तू बोल रहा है किसी मज़लूम के हक़ में
इतनी दबी आवाज़ में क्यों बोल रहा है
पैरों को ज़मीं जिसके नहीं छोड़ती वो भी
पर अपने उड़ाने के लिए तोल रहा है
पहले उसे ईमान कहा करते थे शायद
अब आदमी सिक्कों में जिसे तोल रहा है
दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार
दृष्टिकोण 8-9 (ग़ज़ल विशेषांक) से साभार
1 टिप्पणी:
SHRESHT RACHANA. BADHAAEE.
DR. RAGHUNATH MISRA
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