शनिवार, 1 दिसंबर 2012

डा0 ओम प्रकाश 'दोस्‍त', कोटा


बारहा बस दिल को अपने ख्‍़वाब दिखलाता हूँ मैं
इस बहाने दोस्‍तो कुछ देर मुस्‍काता हूँ मैं
दूसरों के सामने कहता हूँ खु़द को बादशाह
आईने के रू-ब-रू कहने में शर्माता हूँ मैं
रोज़ कितने लोग मरते देखता हूँ मैं यहाँ
ख़ुद नहीं मर पाउँगा ये सोच इतराता हूँ मैं
कहने को तो हैं बहुत मेरे करमफ़र्मा यहाँ
वक्‍़त पड़ने पर सदा तनहा नज़र आता हूँ मैं
ज़ाहिरा करता हूँ बातें तीर की तलवार की
दर हक़ीक़त मारने-मरने से घबराता हूँ मैं
ये जहाँ फ़ानी है इस की हर अदा नापाएदार
ख़ुद नहीं मानूँ अगर औरों को समझाता हूँ मैं
क़ायदे की बात से बाक़ायदा वाक़िफ़ हूँ पर
क़ायदे की बात ही करने से कतराता हूँ मैं
भूल जाता हूँ सुनाना दास्‍ताने-दर्दो-ग़म
जब कभी ऐ ‘दोस्‍त’ तुझ को सामने पाता हूँ मैं

दृष्टिकोण 8-9 ग़ज़ल विशेषांक से साभार  

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