शुक्रवार, 17 मई 2013

डा0 शरदनारायण खरे, मंडला (म0प्र0)

अधरों पर मीठा गान है माँ
हर बच्‍चे की जान है माँ
जिसको सुनकर ही सूर्य जगे
प्रात: का मंगलगान है माँ
बिस्मिल्‍ला की शहनाई तो
तानसेन की तान है माँ
जो बाइबिल है, गुरुवाणी है
रामायण और कुरान है माँ
सचमुच जो संध्‍यावंदन है
आरती-भजन, अज़ान है माँ
सारे घर की रौनक जिससे
हर बच्‍चे की तो शान है माँ
माँ के रहने से खुशहाली
विधना का इक वरदान है माँ
लक्ष्‍मी दुर्गा और सरस्‍वती
देवों का जयगान है माँ
' शरद' आज यह कहता सबसे
जीवन का अरमान है माँ।।

दृष्टिकोण सोपान 11 से साभार 

मंगलवार, 14 मई 2013

आर0सी0 शर्मा 'आरसी', कोटा

आर0 सी0 शर्म
माँ कुछ दिन तू और न जाती,

मां कुछ दिन तू और न जाती,
मैं ही नहीं बहू भी कहती,
कहते सारे पोते नाती. 
मां कुछ दिन तू और न जाती..

हरिद्वार तुझको ले जाता,
गंगा में स्नान कराता ।
कुंभ और तीरथ नहलाता,
कैला मां की जात कराता ।
धीरे धीरे पांव दबाता,
तू जब भी थक कर सो जाती। मां कुछ ...

रोज़ सवेरे मुझे जगाना,
बैठ खाट पर भजन सुनाना ।
राम कृष्ण के अनुपम किस्से,
तेरी दिनचर्या के हिस्से।
कितना अच्छा लगता था जब,
पूजा के तू कमल बनाती। मां कुछ ....

सुबह देर तक सोता रहता,


घुटता मन में रोता रहता ।
बच्चें तेरी बातें करते,
तब आंखों में आंसू झरते।
हाथ मेरे माथे पर रख कर,
मां तू अब क्यों न सहलाती। मां कुछ....


कमरे का वो सूना कोना,
चलना,फ़िरना,खाना,सोना।
रोज़ सुबह ठाकुर नहलाना,
बच्चों का तुझको टहलाना।
जिसको तू देती थी रोटी,
गैया आकर रोज़ रंभाती। मां कुछ....


अब जब से तू चली गई है,
मुरझा मन की कली गई है।
थी ममत्व की सुन्दर मूरत,
तेरी वो भोली सी सूरत।
द्रूढ निश्चय और वज्र इरादे,
मन गुलाब की जैसे पाती।
मां कुछ दिन तू और न जाती. 


श्री आर0 सी0 शर्मा 'आरसी' के ब्‍लॉग से साभार । कविता की पहली गहरी पंक्ति को क्लिक कर उनके ब्‍लॉग पर प्रकाशित कविता को पढ़ें व उनके ब्‍लॉग पर भ्रमण करें। उनके चित्र पर अंकित नाम पर क्लिक कर  उनके ब्‍लॉग पर पहुँचें।-आकुल  

रविवार, 12 मई 2013

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल', कोटा (राज0)


माँ

माँ आँखों से ओझल होती।
आँखें ढूँढ़ा करती रोती।
वो आँखों में स्‍वप्‍न सँजोती।
हर दम नींद में जगती सोती।
वो मेरी आँखों की ज्‍योति।
मैं उसकी आँखों का मोती।
कितने आँचल रोज़ भिगोती।
वो फि‍र भी न धीरज खोती।
कहता घर मैं हूँ इकलौती।
दादी की मैं पहली पोती।
माँ की गोदी स्‍वर्ग मनौती।
क्‍या होता जो माँ न होती।
नहीं जरा भी हुई कटौती।
गंगा बन कर भरी कठौती।
बड़ी हुई मैं हँसती रोती।
आँख दिखाती जो हद खोती।
शब्‍द नहीं माँ कैसी होती।
माँ तो बस माँ जैसी होती।
आज हूँ जो वो कभी न होती।
मेरे संग जो माँ न होती।

शनिवार, 11 मई 2013

आचार्य श्री भगवत दुबे, जबलपुर (म0प्र0)

दोहे

बादामों सा हो गया, मूँगफली का भाव।
सुलभ कहाँ गरीब को, जिनके यहाँ अभाव।।

उल्‍लू के सिर पर धरा, अभिनन्‍दन का ताज।
डूब अँधेरे में गया, हंस सुविज्ञ समाज।।

बहती थी जिस भूमि पर, कभी दूध की धार।
आज वहाँ होने लगा, पानी भी दुश्‍वार।।

पाबन्‍दी थी शांति पर, बन्‍दूकों की खास।
कर्फ्यू में आतंक का, देखा चरामोल्‍लास।।

राजनीति सँग धर्म का, है गठबन्‍धन आज।
कोढ़ी मजहब को लगी, ज्‍यों नफरत की खाज।।

भैंस मीडिया की लिए, बैठे आज लठैत।
दूध मलाई चाटते, जिनके यहाँ भटैत।।

श्री कृष्‍णस्‍वरूप शर्मा 'मैथिलेन्‍द्र' सम्‍पादित 'मेकलसुता' जन0-मार्च 2013 से साभार। 

सोमवार, 6 मई 2013

सुनील कुमार वर्मा 'मुसाफि‍र', इंन्‍दौर (म0प्र0)

समझाते समझाते बहुत थक गया हूँ
लगता है उम्र यूँ ही
बीत जायेगी सबको समझाने में
उथला कुँआ खोदने से कुछ न हासिल होगा
मिलेगा पानी केवल उसको
और गहराने में
बुराई हम में कितनी है इसकी तलाश अंदर करो
क्‍यों ढूँढ़ते हो उसे बाहर जमाने में
जवाँ हो, ज़हीन हो और खुबसूरत भी
तो दावत क्‍यों देते हो मौत को
अरे, जो मज़ा ज़िन्‍दगी में है नहीं है मर जाने में
सिकन्‍दर को भी पता चला मरने के बाद
मज़ा तो है खाली हाथ आने में
खाली हाथ जाने में
अब हम बच्‍चे नहीं रहे, बड़े हो गये हैं
कुछ भी नहीं रखा है रूठने और मनाने में
छेड-छाड़, इशारे-विशारे
फ़ि‍करे-विकरे में कुछ भी नहीं है
कशिश ऐसी पैदा करो कि
वो ख़ुद चलकर आये तेरे दयारों में
अपने काम को अंज़ाम दो पूरी शिद्दत से
कुछ भी नहीं रखा है पुरानी दास्‍तानों में
तलवारों न कल कुछ हासिल हुआ
न ही कल होगा 'मुसाफि‍र'
उसे रहने दो अपनी-अपनी म्‍यानों में।

संदीप 'सृजन' सम्‍पादित 'शब्‍द प्रवाह' जुलाई-सितम्‍बर  2012 अंक से साभार   

गुरुवार, 2 मई 2013

डा0 नौशाब 'सुहैल', दतियवी, दतिया (म0प्र0)

दुखे जो दिल तेरा इतना प्‍यार मत करना।
मैं जा रहा हूँ मेरा इंतजार मत करना।
जख्‍़म अल्‍फ़ाज़ के कभी नहीं भरते ,
ख़ुदा के लिए तुम ऐसा वार मत करना।
वो आला दर्जे के लोग हैं भाई,
ऐसे लोगों में मेरा शुमार मत करना।
चोट खाई है गर तुमने मुहब्‍बत में,
ऐसी ख़ता बार बार मत करना।
शिकवा शिकायत दिल से भुला देना,
दो दिलों के बीच दीवार मत करना।
वो किसी के प्‍यार में दीवाना है,
उसकी बातों पर एतबार मत करना।
इश्‍क इक आग का दरिया है 'सुहैल',
तुम ये दरिया कभी पार मत करना।

पंकज पटेरिया सम्‍पादित 'शब्‍दध्‍वज' से साभार।