रविवार, 28 अप्रैल 2013

अरुण सेदवाल, कोटा

एक बकरे की व्‍यथा

यह सही है
यदि वह नहीं करता आत्‍महत्‍या
तो कर दी जाती उसकी हत्‍या
क्‍योंकि सही ही था उसका मरना
अरुण सेदवाल (1943-2013) 
क्‍योंकि किसी को लाभ नहीं था
उसके जीवित रहने में
न कर्ज़ देने वाले को
न कर्ज़ लेने वाले को
न परिवार को
न सरकार को
अब जब कि मर ही गया है वह
आत्‍महत्‍या के बहाने ही सही
सहूकार को मिल गया है
धन बीमा कम्‍पनी से
मृतक को तो मिल ही गई
मुक्त्‍िा सब यातना से
परिवार को भी मिल गया मुआवज़ा
जो पर्याप्‍त था
अगली पीढ़ी तक के लिए
और मिल ही गया नाम
सरकार को भी
कर के बदनाम पिछली सरकार को
एक बकरा जो थ्‍ज्ञा उसका प्रिय
समझ नहीं पा रहा था
यह सब
केवल रहेगा वही परेशान
कसाई के आने तक।

जनवादी लेखक संघ, कोटा द्वारा 2008 में प्रकाशित 'जन जन नाद' से साभार। श्री सेदवाल अब हमारे बीच नहीं। उन पर समाचार को 'सान्निध्‍य सेतु' में पढ़ने के लिए उनके नाम अथवा सान्निध्‍य सेतु को क्लिक करें और पढ़े। यही उनके लिए सच्‍ची श्रद्धांजलि होगी।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

संजय वर्मा 'दृष्टि', मनावर, जिला- धार (म0प्र0)

सब्‍जी बेचने वाली महिलाएँ
अपने सर पर उठाए बोझा
मोहल्‍ले-मोहल्‍ले घूम कर
आवाज लगाती
'सब्‍जी ले लो'
कौन कहता है कि महिलाएँ
कमजोर होती हैं
पुरुष सुबह टहलने के लिए
उठने और चलने में
आलस कर जाता है
मगर महिलाएँ आज भी
बच्‍चों को पालने
घर को सम्‍हालने
रोजगार में आगे हो गई हैं
पुरुषों से महिलाएँ
स्‍त्री सशक्तिकरण के पक्ष से
श्रम की परिभाषा
क्‍या होती है
ये पुरुषों को समझा जाती हैं।

कमलेश व्‍यास 'कमल' सम्‍पादित 'शब्‍द सागर' अखिल भारतीय काव्‍य संकलन से साभार। 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

प्रोफेसर हितेश व्‍यास, कोटा (राज0)


गिरते गिरते ही सँभल जाइयेगा।
फँसत फँसते ही निकल जाइयेगा।
नंगे तारों का इंतज़ाम हो चुका है ,
छूते छूते ही उछल जाइयेगा।
राख और पानी के बावज़ूद आप ,
बुझते बुझते ही जल जाइयेगा।
एक अदद सूरत के वास्‍ते कृपया,
चाँद और सितारो ढल जाइयेगा।
देवता हैं तो बने रहियेगा पत्‍थर,
आदमी हैं तो पिघल जाइयेगा।

दृष्टिकोण ग़ज़ल विशेषांक से साभार 

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

डा0 महाश्‍वेता चतुर्वेदी, बरेली (उ0प्र0)

माँ ने ममता के घट को छलकाया है।
खोकर इस अमिरत को मन पछताया है।
जिसके आगे इन्‍द्रासन भी छोटा है,
भव-वैभव जिसके आगे सकुचाया है।
इतराकर अपमान नहीं इसका करना,
माँ को किस्‍मत वालों ने ही पाया है।
इसके बिन दर-दर भटका करता बचपन,
अंधकार को सौतेलापन लाया है।
ईश्‍वर की मूरत को ढूँढ़ रहा बाहर,
माँ में ही भगवान रूप मुसकाया है।
उसके आशीषों का सौरभ साथ रहे,
माँ ने ही जीवन उपवन महकाया है।
व्‍यर्थ गया उसका जीवन 'श्‍वेता' जिसने,
उसकी आँखों में आँसू छलकाया है।।

श्री विजय तन्‍हा, सम्‍पादक और अतिथि सम्‍पादक श्रीमती स्‍वर्ण रेखा मिश्रा सम्‍पादित पत्रकिा 'प्रेरणा' के  कवयित्री  विशेषांक से साभार।   

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

डा0 रोहिताश्‍व अस्‍थाना, हरदोई (उ0प्र0)

अशआर

दर्द का इतिहास है हिन्‍दी ग़ज़ल
एक शाश्‍वत प्‍यास है हिन्‍दी ग़ज़ल

सभ्‍यता के नाम पर क्‍या गाँव से आए शहर
एक प्‍याला चाय बन कर रह गई है ज़िन्‍दगी

दोस्‍ती मतलब परस्‍ती बन गई
आस्‍था का सेतु थर्राने लगा

दिल में सौ घाव आँख में पानी
मैंने ये हाल उम्र भर देखा

हमने उनके भी बहुत काम किये
जिनसे अपने न कोई काम चले

हम ख़यालों में सही, पर आपके ही साथ में
उड़ के छूना चाहते हैं, नित ऊँचाइयाँ

श्री अशोक अंजुम और शंकर प्रसाद करगेती सम्‍पादित 'प्रयास' के स्‍वर्ण जयंती अंक से आभार 

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

मथुरा प्रसाद जोशी, हौशंगाबाद (म0प्र0)

माँ की शिक्षा ने जीवन में, ऐसा दीप जलाया।
मिटा तिमिर अज्ञान हृदय का अंजन नयन लगाया।

उसकी बातें हैं कुछ ऐसी जैसे वेद ॠचाएँ।
अंतरपट अंतस में रक्‍खी मुझसे नहीं छिपाएँ।

झिड़की की खिड़की से खुलती मानों दसों दिशाएँ।
सुनी बीरता और साहस की अनुपम शौर्य कथाएँ।

माता के होठों के चुम्‍बन से अमृत है फीका।
इस दुलार सा नहीं मिला कुछ जगत् में नीका।

मद्राचल सी किन्‍तु कर कोमल थामे मेरा।
सागर की गइराई थोड़ी थाह न पाया तेरा।

मलयाचल साँसों में जिसकी वन-उपवन में डेरा।
बाहों के झूले में होता मेरा नित्‍य सवेरा।

ऊषा की किरणों सा कोमल माँ का हर स्‍पंदन।
उसने काटे हैं दुनियाँ के सभी जटिलतर बंधन।

माँ के चरणों में दुनिया का हर वैभव बसता है।
केवल सेवा से मिल जाता है तो भी तो सस्‍ता है।

'शब्‍द प्रवाह' वार्षिक काव्‍य विशेषांक अंक 14 से साभार।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

सनातन कुमार वाजपेयी 'सनातन', जबलपुर (म0प्र0)

खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।
हर गली पर रो रही हैं वेदनायें।।

नृत्‍य-रत आतंक निष्‍ठुर घात करता।
स्‍वार्थ भ्रष्‍टाचार सबको मात करता।
रुग्‍ण हैं शुभ साधनों की कल्‍पनायें।।

उच्‍चता के मान में प्रासाद खोयें।
दैन्‍य ले अपमान का अवसाद ढोंयें।
शांति सुख की शेष कोरी अल्‍पनायें।।

रवि-प्रभा व्‍याकुल न जी भर खिल रही है।
ज्‍योत्‍सना केवल बड़ों को मिल रही है।
मानते हैं अब न कोई वर्जनायें।।

आज सब सद्भाव बौने हो गये हैं।
जो कभी थे श्रेष्‍ठ छौने हो गये हैं।
अब कहीं पर हो ना पाती सर्जनायें।।

शुष्‍क नद, नदियाँ, सिसकतें चाँद तारे।
मिल न पाते शांति के शीतल किनारे।
सो गई जाने कहाँ सब अल्‍पनायें।।

खोजने जायें कहाँ संवेदनायें।।

भारतेंदु समिति, कोटा द्वारा प्रकाशित
त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'चिदम्‍बरा' अप्रेल-सितम्‍बर 2012 (संयुक्‍तांक)  से साभार।  



गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

विजेन्‍द्र कुमार जैन, कोटा

कुछ बच्‍चे, जिनके
garbage collection 
कंधे पर होने चाहिए थे बस्‍ते
उनके कंधे पर देखता हूँ
लटके हुए मोमजामें के थैले और
सड़क पर बिखरी हुई
प्‍लास्टिक की थैलियों को
समेटते हुए वे छोटे छोटे हाथ
सुनता हूँ उनके अबोध
हँसते मस्‍ती में गाते फि‍ल्‍मी गीत
काश ! पैबन्‍द का दर्द जान पाते
किन्‍तु वे उनमें जींस का आनंद लेते
बेखौफ़ बचपन का मज़ाक उड़ाते
पूछना चाहता हूँ, उन्‍हें रोक कर, पर
फि‍ल्‍मों से चुराया एक शब्‍द बोलते हैं-
सॉरी ! हमें जल्‍दी है
कल नये साल की खुशियाँ मनाई थीं न
शहर में बहुत कचरा फैला हुआ है
समेटना है, कमाई करनी है
आज खूब माल मिलेगा
और फि‍र हम भी मनायेंगे नया साल।।

लेखक की  पुस्‍तक 'कचरे का ढेर' से साभार।  

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

श्रीमती सरिता गौतम, राजहरा, जिला दुर्ग (छ0ग0)

दे रही तुझको दुआ, लाचार बूढ़ी माँ।
राह तकती आज, बीमार बूढ़ी माँ ।
राँधती पकवान, तेरे ही पसंदीदा,
यूँ मना लेती है,हर त्‍योहार बूढ़ी माँ ।
इस जहाँ में और तो, कोई नहीं उसका,
मानती तुझको है, हर त्‍योहार बूढ़ी माँ ।
छाँव रखने को सदा, औलाद के सिर पर,
झेलती खुद ही रही, अंगार बूढ़ी माँ ।
ढूँढ़ता फि‍रता है जिसको मंदिरों में तू,
है वह देवी का ही इक अवतार बूढ़ी माँ ।
जब कभी देखा 'मधु' मुझको नज़र आई,
तेज चलती साँस की, रफ्तार बूढ़ी माँ ।

दशम सम्‍मान समारोह (2011) पर प्रकाशित डा0 कृष्‍ण मणि चतुर्वेदी 'मैत्रेय' सम्‍पादित
 'सरिता संवाद' (वार्षिक) से साभार ।  

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

राम प्रसाद अटल, जबलपुर (म0प्र0)

रक्‍त बीज सम घोटालों का, भारत भूमि पर चलन हुआ है।
धार बह रही पूर्ण देश में, गंगा सा अवतरण हुआ है।

ॠषि मुनियों के आदर्शों की,खूब धज्जियाँ उड़ा रहे हैं,
सदाचार, नैतिकता का तो, किस हद तक अब क्षरण हुआ है।

पर धन पर आधारित भारत, लूट खसोट मूल मंत्र है ,
उड़ा रहे कानून की खिल्‍ली, ऐसा भ्रष्‍ट आचरण हुआ है।

देश का उपवन चर रहे हाथी, बकरी, भेड़ खड़ी मिमियाती,
सह-अस्तित्‍व पूछते क्‍या है, खाली अंत:करण हुआ है।

रातों के अंधियारे में तो, लुटे बहुत से माल खजाने,
अब दिन के उजियारे देखो, अरबों का धन हरण हुआ है।

कानून अपंग रहा देश का, घिस-घिस कर चमकाते हैं ,
आते-आते गई चमक फि‍र, बहुतों का तो मरण हुआ है।

नम्‍बर वन बनने को भ्रष्‍ट, कोशिश जारी है दिन रात,
डरते हैं कमज़ोर मगर, पुरजोरों का आमरण हुआ है।

धन वैभव किसके दास हुए, नहीं रही सोने की लंका,
स्‍वर्ण मृग के कारण ही तो, इक दिन सीता हरण हुआ है।

चाँद सितारों से हम चमके, अटल हमें इतिहास बताता,
वो तारे अब धम-धम गिरते, ऐसा अध:पतन हुआ है।।

संदीप 'सृजन' सम्‍पादित 'शब्‍द प्रवाह' जनवरी-मार्च वार्षिक काव्‍य विशेषांक से साभार। 

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

झालावाड़ नरेश स्‍व0 राजेंद्र सिंहजी 'सुधाकर'

कवि महाराव राजेंद्र सिंह जी 'सुधाकर', झालावाड़
http://members.iinet.net.au/~royalty/ips/j/jhalawar.html
1-
मंदिर और मस्जिद को एक कर मानो सदा,
भेदभाव भरे शब्‍द जीभ पै भी लाओ ना।
चारों वर्ण वालों को न जौ लौं एक कर पाओ
भारत सपूतों तौ नों चित्‍त चैन पाओ ना।
कन्‍धे से भिड़ा कर कन्‍धा, रहो सुख दुख माँ‍हि
जौ लों विश्‍व बीच सीस ऊँचा कर पाओ ना
हथेली पै सीस लिए फि‍रना है देश काज
'सुधाकर' प्‍यारे वीरों-सौ बीड़ा उठाओ ना।
2-
विद्या, बल, बुद्धि सब देश हित में ही लगे,
'सुधाकर' प्रेम हो द्वेश का न लेश हो ।
भारत के हित में ही तन्‍मय हों वृत्ति सारी,
मंत्रों से स्‍वतंत्रता के गूँजता स्‍वदेश हो।।

डॉ0 नरेंद्र चतुर्वेदी कृत 'हाड़ौती अंचल की हिन्‍दी काव्‍य परम्‍परा और विकास' से साभार।

रविवार, 14 अप्रैल 2013

डा0 इंद्रबिहारी सक्‍सैना, कोटा

हो मंगलमय वर्ष सभी को
मुक्त्‍िा मिले अवसादों से
हो न प्रदूषित निर्मल निर्झर
कटु, विषाक्‍त संवादों से।

उत्‍पीड़न का ज्‍वार थमे
सद्भाव शीघ्र स्‍थापित हो
पुण्‍य धरा गौतम, गाँधी की
प्रभु न कभी अभिशापित हो।

बाढ़, भूख, भूकम्‍पन की अब
पड़े न काली परछाईं
फूले-फले सुरभि दे सबको
उत्‍कर्षों की अमराई।

कटुता, संशय, मन का कल्‍मष
हो धोने की तैयारी
रंग बिखेरे हर आँगन में ,
फि‍र होली की पिचकारी।

लेखक की पुस्‍तक 'मरु में महके गीत-प्रसून' से साभार । 

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

रघुराज सिंह 'निश्‍चल', मुरादाबाद (उ0प्र0)

हवाओं का रुख अब बदलने लगा है
मनुज को मनुज आज छलने लगा है।
अभी तक जो भरते थे दम दोस्‍ती का,
उन्‍हें बात करना भी खलने लगा है।
मिली हमको जिस दिन से थोड़ी शोहरत,
ग़ज़ब है कि हर दोस्‍त जलने लगा है।
नई सभ्‍यता की चली जब से आँधी,
हया का जनाजा निकलने लगा है।
यह दुनिया दिखावे की ही रह गई है,
दिखावे को हर मन मचलने लगा है।
इन आतंकियों पर नियंत्रण नहीं है,
धमाकों से जग अब दहलने लगा है।
भरोसे के क़ाबिल नहीं कोई 'निश्‍चल',
ज़बाँ से अब इंसान फि‍सलने लगा है।

श्री मुकेश 'नादान' सम्‍पादित *साहित्‍यकार-4* से साभार 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

सम्‍मान्‍यश्री अटलबिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत

स्‍वतंत्रता दिवस की पुकार 

15 अगस्‍त का दिन कहता,आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है।।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत
जिनकी लाशों पर पग धर कर, आज़ादी भारत में आयी।
वे अब तक है खानाबदोश, गम की काली बदली छायी।।

कलकत्‍ते के फुटपाथों पर, जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्‍द्रह अगस्‍त के,बारे में क्‍या कहते हैं।।

हिन्‍दू के नाते उनका दु:ख, सुनते यदि तुम्‍हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो, सभ्‍यता जहाँ कुचली जाती।।

इन्‍सान जहाँ बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्‍लाम सिसकियाँ भरता है, डॉलर मन में मुस्‍काता है।।

भूखों को गोली, नंगों को, हथियार पिन्‍हाये जाते हैं।
सू्खे कंठों से जेहादी, नारे लगवाये जाते हैं।।

लाहौर, कराची, ढाका पर, मातम की है काली छाया।
पख्‍तूनों पर, गिलगित पर है, ग़मगीन ग़ुलामी का साया।।

बस, इसीलिए कहता हूँ, आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्‍लास मनाऊँ मैं, थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को, पुन: अखंड बनायेंगे।
गिलगिट से गारो पर्वत तक, आज़ादी पर्व मनायेंगे।।

उस स्‍वर्ग दिवस के लिए आज से, कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जायँ, जो खोया उसका ध्‍यान करें।।

प्रो0 श्‍यामलाल उपाध्‍याय सम्‍पादित *काव्‍य मंदाकिनी* (2009-10)
राष्‍ट्रीय भावधारा अंक काव्‍य संग्रह से  साभार।  

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

मुखराम माकड़ माहिर , रावतसर, जिला हनुमानगढ़ (राजस्‍थान)

कण कण में रमते श्रीराम
जन जन के मन में घनश्‍याम
डग-डग पर है पावन धाम
किरीट हिमगिरि धवल ललाम
करते देव यक्ष नित वन्‍दन।
मेरे देश की माटी चन्‍दन।।

गूँजे वरद वेद की बानी
सदा नीरा नदियाँ सुहानी
तिरंगा कहे मुक्ति कहानी
संत भक्‍त की अमर निशानी
षट् ॠतुओं का नन्‍दनवन।
मेरे देश की माटी चन्‍दन ।।

सब धर्मों की यह फुलवारी
महक रही केसरिया क्‍यारी
जगत् गुरु की महिमा न्‍यारी
दुर्गा रमा शिवा सी नारी
जलधि करे चरणों का चुम्‍बन।
मेरे देश की माटी चन्‍दन।

डा0 जयसिंह अलवरी सम्‍पादित 'राष्‍ट्र नमन' काव्‍य संकलन से साभार। 

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

कपिलेश भोज, सोमेश्‍वर, अलमोड़ा (उ0खं0)

कीमती से कीमती
विचार जो
तुम्‍हीं तक
रह जाएँ सीमित
किताबों में ही
होकर रह जाएँ कैदी
न पहुँचें जो
हजारों-हजार
दिलों तक अँधेरे में
फूट न सकें
उजाले की तरह और
जगा न सकें
संकल्‍प और
सपने नये तो
किस काम के हैं
वे विचार और
किसलिए लादे
फि‍र रहे हो
तुम अकेले ही उन्‍हें
इस वीराने में
आओ
मिल-जुल कर
विचारों को दें
हम उस तरह
जिन्‍दगी जैसे
बीजों को देते हैं
मिट्टी, खाद और पानी-----

श्री रवींद्र शर्मा, बिजनौर  सम्‍पादित 'काव्‍य सरोवर' से साभार    

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

डा0 ईश्‍वर चंद 'गंभीर',दतियाना, गाजियाबाद (उ0प्र0)


आदमी को छल रहा है आदमी
है थका पर चल रहा है आदमी
आज दुश्‍मन आदमी का आदमी
पर सहारा कल रहा है आदमी
राजनीति रोटियाँ खाकर यहाँ
मुफ़्त में ही पल रहा है आदमी
जो शिवा, नानक कभी गौतम रहा
देश का संबल रहा है आदमी
दूर है कर्तव्‍य से सन्‍मार्ग से
द्वेश से अब जल रहा है आदमी
आदमी दुर्लभ कृति भगवान की
दानवों में ढल रहा है आदमी
आज तिनके की तरह ‘गंभीर’ बिखरा
साथ था जब बल रहा है आदमी।

मुकेश 'नादान' सम्‍पादित पुस्‍तक साहित्‍यकार-2 से साभार 

रविवार, 7 अप्रैल 2013

कृष्‍ण कुमार यादव, पोर्टब्‍लेयर (अंडमान निकोबार द्वीप समूह)

रिश्‍तों के बदलते मायने
अब वे अहसास नहीं रहे
बन गए अहम् की पोटली
ठीक अर्थशास्‍त्र के नियमों की तरह
त्‍याग की बजाय माँग पर आधारित
हानि और लाभ पर आधारित
शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव की तरह
दरकते रिश्‍ते, ठीक वैसे ही
जैसे किसी उद्योगपति ने
बेच दी हो घाटे वाली कम्‍पनी
बिना समझे किसी के मर्म को
वैसे ही टूटते रिश्‍ते
आज के समाज में और
अहसास पर
हावी होता जाता है अहम् ।

श्री मुकेश 'नादान' सम्‍पादित पुस्‍तक  *साहित्‍यकार-4* से साभार

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

संतोष सुपेकर, उज्‍जैन (म0प्र0)

क्‍या पड़ी हमें, जो बंद करें
एक बहता हुआ नल
हम आज़ाद जो ठहरे।
क्‍या पड़ी हमें, जो बंद करें
दिन में जलता बल्‍ब
हम आज़ाद जो ठहरे।
क्‍या पड़ी हमें, जो मदद करें
एक बेबस, बेसहारा की
हम आज़ाद जो ठहरे।
यों बचाएँ हम पैट्रोल-डीज़ल
क्‍यों पालन करें सड़क नियमों का
हम आज़ाद जो ठहरे।
ये आज़ादी है या उच्‍छृंखलता?
हमें क्‍या पड़ी है, जो हम सोचें
हम आज़ाद जो ठहरे।।

उनकी पुस्‍तक *चेहरों के आरपार* से साभार।

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

रेखानंद बरोड़, चूरू (राजस्‍थान)

लाल रवि उगने वाला है, लाली ज्‍यों बतलाती है ।
जाग,  जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

यह तो नगरी चोर, ठगों की, यहाँ लुभाया जाता है।
हर बार यहाँ पर, भेष बदल कर भी भरमाया जाता है।
मुर्गों वाली मीठी बोली, बात यही बतलाती है।
जाग,  जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

तेरे भोलेपन से खेत-खलिहान, लुटेरे लूट रहे।
ओ मज़दूरी करने वाले, तुझे बोलते झूठ रहे।
चोर,  लुटेरों की दुनिया तो, हरदम मौज मनाती है ।
जाग, जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

मेहनतकश तू गोलबंद हो, चींटी की फ़ि‍तरत कहती है।
चोरी-चकारी से चौकस हो, आज हक़ीक़त कहती है।
तज दे आलस, उठ जा साथी, चोर, चोर के नाती हैं।
जाग, जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

बाँध कमरिया मजबूती से, पकड़ मार्ग जो हो सच्‍चा।
भरम सिला के टुकड़े कर दे, फाड़ दे तू चिट्ठा कच्‍चा।
श्रमजीवी ताक़त ही बस, इतिहस नया लिखवाती है।
जाग, जाग श्रमजीवी साथी, तुझे नींद  क्‍यों आती है।।

जनवादी लेखक संघ, कोटा  से प्रकाशित 
*जनवाद  का प्रहरी * से साभार