बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

शैलेन्‍द्र शर्मा, कानपुर

कर्जों की बैसाखी पर है, दौड़ रही रौनक
व्‍याप रही है अगल-बगल में, जिसकी एक हनक।
फ्रि‍ज, टी0वी0, वाशिंग मशीन औऱ वेक्‍यूम क्‍लीनर।
सोफ़ों, पर्दों, कालीनों से दमके सारा घर।
जेबें नहीं टटोली अपनी ऐसी चढ़ी सनक।।
दो पहियों को धक्‍का देकर, घुसे चार पहिये।
महँगा मोबाइल पाकिट में, लॉकिट क्‍या कहिये।
किश्‍तों में जा रही पगारें ऊपर तड़क-भड़क।।
दूध, दवाई, फल, सब्‍जी पर कतर-ब्‍यौंत चलती।
माँ के चश्‍मे की हसरत भी रहे हाथ मलती।
बात-बात पर घरवाली भी देती उन्‍हें झड़क।।
नून, तेल, लकड़ी का चक्‍कर, रह-रह सिर पकड़े।
फि‍र भी चौबिस घंटे रहते वो अकड़े-अकड़े।
दूर-दूर तक मुस्‍कानों की दिखती नहीं झलक।।
दृष्टिकोण-7 से साभार

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

सुरेश चंद्र निगम, झालावाड़

फूल पौध की पहचान है
फूल परिवेश का सम्‍मान है
फूल पूर्णता का बढ़ता चरण ।।

फूल भावी बीज का अरमान है
फूल है हृदय की कोमलता
फूल है जीवन की सरसता
फूल निर्मल मन का आभूषण ।।

फूल निष्‍काम कर्म की सफलता
फूल आराध्‍य की आराधना
फूल पावन प्रेम की उपासना
फूल सौभाग्‍य का सुखद वरण ।।

फूल सत्‍कार की सद्भावना
फूल विदाई की शुभकामना
फूल जीत की बाधावना
फूल सर्वस्‍व का समर्पण ।।

फूल प्रफुल्‍ल भोर सुहावना
फूल से सुरभित होता जग सारा
फूल है प्रीति का मीत प्‍यारा
फूल उपवन का है अलंकरण ।।

फूल शहीद पथ की शान है
फूल बलिदानी की आन है
फूल तो उत्‍सर्ग का आह्वान है
फूल सदा वीरगति की शरण ।।

दृष्टिकोण प्रवेशांक से साभार

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

कृष्‍णदास

शरद रास

खेलत रास रसिक नंदलाला
 जमुना-पुलिन सरद निसि सोभित रचि मण्‍डल ठाढ़ी ब्रजबाला।।
 तत्‍ता थेई तत्‍ता थेई सब्‍द उघटत है बाजत झाँझ पखावज झाला।
 जम्‍यौ सरस खट राग सप्‍त स्‍वर कूजत कोमल बेन रसाला।।
 सन्‍मुख लेत है उरप तिरप दोउ, राधा रसिकिनी मदनगोपाला।
 मानों जलद दामिनी रसभरी कनक-लता मानौं स्‍याम तमाला।।
 सुरपुर-नारी निहारि परम रस अरु रतिपति मन्‍मथ बेहाला।
 थकित चंद गति मंद भयौ अति चूके मुनि ध्‍यान धरत बहु काला।।
 परम विलास रच्‍यौ नटनागर‍ विलुलित उरसि मनोहर माला।
 ’कृष्‍णदास’ लाल गिरिधर–गति पावत नांहिने स्‍वामि मराला।। 
(सूर सागर एवं परमानन्‍द सागर को छोड़कर कृष्‍णदास पद संग्रह ही आकार में सबसे बड़ा है। कृष्‍णदास के काव्‍य का वर्ण्‍य-विषय यद्यपि सभी रस की भगवल्‍लीलाएँ ही हैं तथापि चौरासी वैष्‍णवन की वार्ता के अध्‍ययन से प्रकट होता है कि उन्‍हें रासलीला का विशेष साक्षात् हुआ था। पुष्टिमार्गीय वल्‍लभकुल सम्‍प्रदाय के अष्‍टछाप कवियों में एक प्रख्‍यात कवि कृष्‍णदास का एक रासलीला पद जो राग 'खट'में निबद्ध है।) 

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

राम गोपाल राही, लाखेरी (राजस्‍थान)

माँ
माँ की ममता अतुल प्रेम की
स्‍मृतियाँ गंगाजल
माँ के बिना कहाँ इस जग में
मिले स्‍नेह का आँचल
अधर-हृदय सच माँ का मंदिर
निर्मल मूरत माँ की
छवि अनोखी-अनुपम-सुन्‍दर
जब देखो तब माँ की
माँ का आशीर्वाद, भावना
है माथे का चंदन
करे सुवासित जीवन भर ही
माँ का स्‍मरण वंदन
ईश्‍वर ज्ञानाभास बाद में
पहले माँ का होता
माँ की गोद
स्‍वर्ग की सुषमा
स्‍नेह अनमोल खजाना
मातृ हृदय बैकुंठ निरुपम
ईश्‍वर ने भी जाना
अमृत को देखा कहाँ जग में
किसने भला पिया है
सच माँ स्‍तन पान ही अमृत
उसने जिसे पिया है।

दृष्टिकोण प्रवेशांक से साभार  

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

इला मुखोपाध्‍याय, रायपुर (छत्‍तीसगढ़)

कभी कभी
जिनको मैं
अच्‍छे से जानती हूँ
उनको भी
अनजान मालूम होती हूँ
कभी कभी
न समझ एक हवा

न समझ एक हवा
बह रही थी उस दिन
मैं समझ नहीं पा रही थी
आपको, स्‍वयं को और
भोले से उस उदासीन
बालक को
उलटी-पलटी हवा और
टूटे हुए पत्‍ते
नये ढंग से चिह्नित कर रही थी
हम सबको- हम जो नहीं है
वह बन गये
एक दिन  

दृष्टिकोण प्रवेशांक से साभार

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

डा0 मिर्जा हसन नासिर, लखनऊ


त्रिपदा छंद 

लेखक अब तू जाग रे।
भूल नहीं निज धर्म
कर्मों से मत भाग रे।।

काबा काशी एक हैं।
मस्जिद मंदिर एक
मज़हब भले अनेक हैं।।

कितने बेघर हो गये।
अजब हुई बरसात
सपने उनके खो गये।।

प्रीति-रीति न छोड़िए।
कहते ॠषि-मुनि-संत
सम्‍बंधों को जोड़िए।।

यादों की बारात है।
घेरे है अवसाद
बिन मौसम बरसात है।।

तिमिर हुआ सब दूर है।
घर में आया कौन
बिखरा चहूँ दिशि नूर है।।

दृष्टिकोण-5 से साभार 

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

डा0 ब्रह्मजीत गौतम, भोपाल


जंगल में भी मंगल होगा
यादों का यदि संबल होगा
जीवन सुख से कट जाएगा
साथ तुम्‍हारा प्रतिपल होगा
प्‍यार-मुहब्‍बत से न रहे तो
हर पल घर में दंगल होगा
आज हमारी मुट्ठी में है
क्‍यों सोचें फि‍र क्‍या कल होगा
औरों को यदि धोखा दोगे
साथ तुम्‍हारे भी छल होगा
ले लो खूब दुआएँ माँ की
इससे मीठा क्‍या फल होगा
’जीत’ कदापि नहीं हारोगे
मन में यदि नैतिक बल होगा।

'दृष्टिकोण' प्रवेशांक से साभार 

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

साहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी
अहल-ए-दिल और भी है अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं
हम पे ही ख़त्‍म नहीं मस्‍लक-ए-शोरीदासरी
चाक दिल और भी हैं चाक क़बा और भी हैं

क्‍या हुआ गर मेरे यारों की ज़ुबानें चुप हैं
मेरे शाहिद मेरे यारों के सिवा और भी हैं

सर सलामत है क्‍या संग-ए-मलामत की कमी
जान बाकी है तो पैकान-ए-कज़ा और भी हैं

मुंसिफ़-ए-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाये
लोग कहते हैं कि अरबाब-ए-जफ़ा और भी हैं

मस्‍लक-ए-शोरीदासरी- दीवानगी का रास्‍ता, क़बा- चोगा

संग-ए-मलामत- पत्‍थर मार कर भर्त्‍सना, पैकान-ए-कज़ा- मौत की बर्छी
मुंसिफ-ए-शहर – न्‍यायाधिपति, वहदत- एकता, अरबाब-ए-जफ़ा–अत्‍याचार करने वाला खु़दा  

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

गुलज़ार , मुंबई


Gulzar

आदतन हम ने ऐतबार किया

तेरी राहों में हर बार रुक कर

हम ने अपना ही इन्‍तज़ार किया

अब ना माँगेंगे जिन्‍दगी या रब

यह गुनाह हमने एक बार किया

कविता संसार से साभार

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

काका हाथरसी

काका
अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार
बिना टिकट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
जहाँ मूडआया वहीं, खींच लई ज़ंजीर
खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू
पकड़ें टी. टी. गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना
प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना
 भ्रष्टाचार
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
क्यूमें धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो, खत्म हो गया आटा
 घूस माहात्म्य
कभी घूस खाई नहीं, किया न भ्रष्टाचार
ऐसे भोंदू जीव को बार-बार धिक्कार
बार-बार धिक्कार, व्यर्थ है वह व्यापारी
माल तोलते समय न जिसने डंडी मारी
कहँ 'काका', क्या नाम पायेगा ऐसा बंदा
जिसने किसी संस्था का, न पचाया चंदा

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

श्रद्धा जैन, सिंगापुर

श्रद्धा जैन
घटा से घिर गई बदली नज़र नहीं आती
बहा ले नीर तू उजली नज़र नहीं आती
हवा में शोर ये कैसा सुनाई देता है
कहीं पे गिर गई बिजली नज़र नहीं आती
हैं चारों ओर नुमाइश के दौर जो यारो
दुआ भी अब यहाँ असली नज़र नहीं आती
चमन में ख़ार ने पहने गुलों के चेहरे हैं
कली कोई कहाँ कुचली नज़र नहीं आती
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नहीं आती

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

कुँअर बेचैन, मुरादाबाद (उ0प्र0)

उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे


बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे
दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे
होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे
वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे
कविता कोश से साभार

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

द्वारका लाल गुप्‍ता 'बेकल', बाराँ (राज0)

मेरे हमसफ़र मुझे माफ़ कर मेरा रास्‍ता कुछ और है।
तेरी ज़िन्‍दगी कुछ और है मेरा फ़लसफ़ा कुछ और है।
तू सुन न सुन तेरी रज़ा मरी शायरी मेरी बन्‍दगी,
मैं बना न पाया ताज पर मेरी साधना कुछ और है।
तेरी हर खुशी मेरी खुशी तेरा दर्द ही मेरा दर्द है,
मैं वो नहीं कुछ और हूँ मेरी दास्‍ताँ कुछ और है।
तेरी शक्‍ल में कुछ बात है जो मेरे दिल को भा गई,
तू नसीब है किसी और का मेरा राज़दाँ कुछ और है।
तू पली है फूलों के दरमियाँ मेरा जन्‍म ही ख़ारों में है,
तेरा मर्तबा कुछ और है मेरा मर्तबा कुछ और है।
'बेकल’ नहीं तू बेवफ़ा तेरा दीन पर ईमान है,
तुझे दोष देते वो बेवज़ह तेरा इम्‍तहाँ कुछ और है।