रविवार, 30 सितंबर 2012

त्रिलोक सिंह ठकुरैला

कुण्‍डलिया छंद

(1)
हिंदी भाषा अति सरल, फिर भी अधिक समर्थ
मन मोहे शब्दावली, भाव-भंगिमा, अर्थ
भाव-भंगिमा, अर्थ, सरल है लिखना पढना
अलंकार, रस, छंद और शब्दों का गढ़ना
'
ठकुरेला' कविराय, सुशोभित जैसे बिंदी
हर प्रकार संपन्न, हमारी भाषा हिंदी
(2)

अपनी भाषा है,सखे, भारत की पहचान
अपनी भाषा से सदा,बढ़ता अपना मान
बढ़ता अपना मान, सहज संवाद कराती
मिटते कई विभेद, एकता का गुण लाती
'
ठकुरेला' कविराय, यही जन जन की आशा
फूले फले सदैव, हमारी हिंदी भाषा
(3)

हिंदी को मिलता रहे, प्रभु, ऐसा परिवेश
हिंदी-मय हो एक दिन, अपना प्यारा देश
अपना प्यारा देश, जगत की हो यह भाषा
मिले मान-सम्मान, हर तरफ अच्छा-खासा
'
ठकुरेला' कविराय, यही भाता है जी को
करे असीमित प्यार, समूचा जग हिंदी को
(4)

अभिलाषा मन में यही, हिंदी हो शिरमौर
पहले सब हिंदी पढ़ें, फिर भाषाएँ और
फिर भाषाएँ और, बजे हिंदी का डंका
रूस,चीन,जापान, कनाडा हो या लंका
'
ठकुरेला' कविराय, लिखे नित नव परिभाषा
हिंदी हो शिरमौर, यही अपनी अभिलाषा